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पर्यटन एवं आस्था का अनूठा संगम श्री रेणुकाजी

मध्य हिमालय की पहाड़ियों के आंचल में सिरमौर जिला के गिरिपार क्षेत्र का पहला पड़ाव है श्री

By JagranEdited By: Published: Sat, 16 Nov 2019 09:20 PM (IST)Updated: Tue, 19 Nov 2019 06:25 AM (IST)
पर्यटन एवं आस्था का अनूठा संगम श्री रेणुकाजी
पर्यटन एवं आस्था का अनूठा संगम श्री रेणुकाजी

मध्य हिमालय की पहाड़ियों के आंचल में सिरमौर जिला के गिरिपार क्षेत्र का पहला पड़ाव है श्री रेणुकाजी। भगवान परशुराम की जन्मभूमि श्री रेणुकाजी उत्तर भारत का प्रसिद्ध धार्मिक एवं पर्यटन स्थल है। श्री रेणुकाजी झील हिमाचल की सबसे बड़ी प्राकृतिक झील है। यह झील लगभग तीन किलोमीटर में फैली है। इसकी खासियत यह है कि झील का आकार किसी स्त्री जैसा है। इसे मां रेणुकाजी की प्रतिछाया भी माना जाता है। कहा जाता है कि कई बार वैज्ञानिकों ने इस झील की गहराई मापने की कोशिश की, मगर उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई। यहा यह भी मान्यता है कि जब भी कोई व्यक्ति झील को तैरकर पार करने की कोशिश करता है, तो वह बीच में ही डूब जाता है। इसी झील के किनारे मां श्री रेणुकाजी व भगवान परशुरामजी के भव्य मंदिर हैं। हिमाचल समेत पड़ोसी राज्यों के लोगों की इसमें अटूट श्रद्धा है। श्री रेणुकाजी की महत्ता भगवान परशुराम की जन्मस्थली होने की वजह से है। धार्मिक स्थल होने के बावजूद यहा सैलानियों का ताता लगा रहता है। आइए जानें श्री रेणुका जी के बारे में कुछ रोचक तथ्य.. डेढ़ घड़ी के लिए आती हैं मां रेणुका माता रेणुका अपने बेटे भगवान परशुराम से मिलने के लिए हर साल डेढ़ घड़ी के लिए आती हैं। एक कथा के अनुसार ऋषि जमदग्नि ने किसी बात से गुस्सा होकर एक-एक करके अपने 100 पुत्रों को माता (रेणुका) का वध करने का आदेश दिया, परंतु उनमें से केवल पुत्र परशुराम ने ही पिता की आज्ञा का पालन करते हुए माता का वध कर दिया। इस पितृआज्ञा से प्रसन्न होकर ऋषि जमदग्नि ने पुत्र से वर मांगने के लिए कहा तो भगवान परशुराम ने अपने पिता से माता को पुनर्जीवित करने का वरदान मांगा। ऋषि जमदग्नि ने पत्नी रेणुका को जीवित कर दिया। इस दौरान माता रेणुका ने वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इसी दिन डेढ़ घड़ी के लिए अपने पुत्र भगवान परशुराम से मिला करेंगी। तब से हर साल कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को भगवान परशुराम अपनी माता रेणुका से मिलने आते हैं। मां-बेटे के इस पावन मिलन के अवसर अक्तूबर-नवंबर में प्रतिवर्ष एक सप्ताह तक चलने वाले अंतरराष्ट्रीय श्रीरेणुकाजी मेले का आयोजन होता है। तब की डेढ़ घड़ी आज के डेढ़ दिन के बराबर है। पहले यह मेला डेढ़ दिन का हुआ करता था। वर्तमान में लोगों की श्रद्धा व जनसैलाब को देखते हुए अब यह मेला कार्तिक शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक आयोजित किया जाता है। यह मेला मां रेणुका के वात्सल्य एवं पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा आयोजन है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस मेले में आसपास के सभी ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकी में सुसज्जित होकर मां-पुत्र के इस दिव्य मिलन में शामिल होते हैं। भगवान परशुराम जी की शोभायात्रा से शुरू होता है मेला श्री रेणुका जी में लगने वाले अंतरराष्ट्रीय मेले की परंपरा के अनुसार मेले के शुभारंभ पर ददाहू से भगवान परशुराम जी की शोभायात्रा निकाली जाती है। जिसमें क्षेत्र के अन्य देवी-देवता भी भाग शिरकत करते हैं। प्रबोधिनी एकादशी और पूर्णमासी के पावन अवसर पर प्रात: श्री रेणुकाजी झील में स्नान का विशेष महत्व है। इस दिन असंख्य श्रद्धालु झील में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर भगवान विष्णु के अवतार परशुराम का जन्म हुआ था। अक्षय तृतीया के दिन ही इनकी जयंती मनाई जाती है। कलयुग में आज भी ऐसे आठ चिरंजीव देवता और महापुरुष हैं जो जीवित हैं। इन्हीं 8 चिरंजीवियों में एक भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम भी हैं। चादी की पालकी में आते हैं भगवान परशुराम एक सप्ताह तक चलने वाले अंतरराष्ट्रीय मेले में भगवान परशुराम चादी की पालकी में जामूकोटि से अपनी माता श्री रेणुकाजी से मिलने आते हैं। जामूकोटि के अतिरिक्त कटाहा शीतला, मंडलाह व माशु चयोग से भी भगवान परशुराम जी की पालकी आती हैं। जामूकोटि से जंगल के रास्ते भगवान परशुराम की पालकी त्रिवेणी संगम एवं गिरी नदी के तट पर पहुंचती है। जहा पर रियासत काल की तरह आज भी राज परिवार का सदस्य भगवान परशुराम की पालकी का स्वागत करता है। जबकि कटाह शीतला, मंडलाह व माशु चयोग से आने वाली भगवान परशुराम की पालकी को ददाहु स्कूल में पहुंचाया जाता है। उसके बाद हिमाचल के मुख्यमंत्री भगवान परशुराम की जामूकोटि से आई चादी की पालकी को काधा देखकर शोभा यात्रा का शुभारंभ करते हैं। शोभायात्रा शाम से पहले मा श्री रेणुकाजी झील के किनारे पहुंचती है, जहा पर राम बावड़ी पर मा के चरण हैं। उन्हें भगवान परशुराम की प्रतिमा से मा के जल को स्पर्श कराया जाता है। इसी तरह भगवान परशुराम अपनी माता रेणुका के चरण स्पर्श कर उनसे मिलन करते हैं। दशमी को भगवान परशुराम अपनी माता से मिलने आते हैं और पूर्णमासी को भगवान परशुराम को उनके स्थानों को विदाई दी जाती है। चार धाम का अंतिम पड़ाव श्रीरेणुकाजी जिला सिरमौर में रियासत काल से चार धाम प्रचलित हैं। जिला सिरमौर के जो लोग गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ व बद्रीनाथ नहीं जा सकते हैं। वह जिला सिरमौर के स्थानीय चार धामों की यात्रा कर यात्रा कर पुण्य कमा लेते हैं। सिरमौर जिला में पहला धाम सबसे ऊंची चूड़धार चोटी पर स्थित भगवान शिव के अंशावतार शिरगुल महाराज की तपोस्थली चूड़धार है। दूसरे धाम के रूप में पर्यटक सराहां (शिमला जिला के चौपाल उपमंडल में ) स्थित भगवान विष्णु के अवतार बिजट महाराज के दर्शन कर पुण्य कमाते हैं। तीसरे धाम में श्रद्धालु हरिपुरधार स्थित न्याय की देवी के रूप में विख्यात मां भंगाईणी देवी (मां काली का रूप) के दर पंहुचते हैं। अंत में चौथे धाम के रूप में लोग मां गंगाजी की तरह पवित्र झील श्रीरेणुकाजी में स्नान व दर्शन कर अपनी चार धाम की यात्रा को पूरी कर मोक्ष की कामना करते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर बाबा बडोलिया मंदिर नाहन-श्रीरेणुकाजी मार्ग पर ददाहु से करीब छह किलोमीटर पहले एक धार्मिक स्थल बाबा बडोलिया का मंदिर भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। करीब 550 फीट ऊंची पहाड़ी से गिरता पानी का झरना इस मंदिर की सुंदरता और अधिक बढ़ा देता है। साल भर इस झरने से पानी बहता रहता है। बाबा बडोलिया का मंदिर एक बड़ी चट्टान पर स्थित है। विशेषकर श्रावण मास की संक्रांति को यहां अपार जनसमूह उमडकर बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करता है। कैसे पहुंचे श्री रेणुकाजी श्री रेणुकाजी पहुंचने वाले पर्यटकों के लिए सबसे नजदीक के रेलवे स्टेशन कालका, धर्मपुर, यमुनानगर, चंडीगढ़ व देहरादून है। चंडीगढ़ व देहरादून से श्री रेणुकाजी की दूरी 125 किलोमीटर है। श्री रेणुकाजी से अंबाला 95, पांवटा साहिब से 55 व सिरमौर जिला मुख्यालय नाहन से 37 व कालका रेलवे स्टेशन से 140 किलोमीटर व राजधानी शिमला से 155 किलोमीटर है। श्री रेणुकाजी के समीप सबसे नजदीक का एयरपोर्ट देहरादून व चंडीगढ़ है। देहरादून, चंडीगढ़, अंबाला, यमुनानगर, से नाहन व पांवटा साहिब होते हुए श्रीरेणुकाजी पहुंचा जा सकता है। श्रीरेणुकाजी में पर्यटकों व श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए धर्मशालाएं, हिमाचल टूरिज्म के होटल, सरायं, अन्य निजी होटल व हिमाचल सरकार के विश्रामगृह उपलब्ध हैं। श्रीरेणुकाजी पहुंचने के लिए नाहन, पांवटा साहिब, चंडीगढ़, हरिद्वार व अंबाला से सीधी बस सेवाएं भी उपलब्ध है। कहां-कहां घूमें श्रीरेणुकाजी क्षेत्र में श्रीरेणुकाजी में पर्यटकों को देखने के लिए भगवान परशुराम की जन्मस्थली पुरानी देवठी (भगवान परशुराम का प्राचीन मंदिर), मां श्रीरेणुकाजी का मंदिर, परशुराम ताल, श्रीरेणुकाजी झील, भगवान परशुराम जी की तपोस्थली तपे का टीला, मां गायत्री मंदिर व मिनी चिड़ियाघर है। वहीं पर्यटक श्रीरेणुकाजी से पांच किलोमीटर दूर 40 मेगावाट के जटोन बांध व श्रीरेणुकाजी में प्रस्तावित 40 मेगावाट बांध स्थल का दौरा कर भी गिरी नदी के उफनते पानी का लुप्त उठा सकते हैं। आप साल में कभी भी यहां घूमने आ सकते हैं। मीठे पानी के चश्मे से पीये अमृत

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श्रीरेणुकाजी झील की परिक्रमा करते समय एक मीठे पानी का चश्मा आता है। इस मीठे पानी के चश्मे के बारे में बताया जाता है कि कुछ वर्षों पुर्व तक इस मीठे पानी चश्मे से दूध निकलता था और इस दूध को क्षेत्र की जनता अमृत के तौर पर अपने दैनिक उपयोग के लिए प्रयोग करते थे। मगर समय के साथ यह दूध अब मीठे पानी में परिवर्तित हो गया और अब यहां पर मीठे पानी की जल धारा बहती है। श्रीरेणुकाजी झील परिक्रमा मार्ग में मान्यता है कि यदि परिक्रमा मार्ग पर यदि कोई भी छोट-छोटे पत्थरों से मकान बनाता है, तो मां रेणुकाजी के आशीर्वाद से 1 वर्ष में है उक्त व्यक्ति का मकान बनाने का सपना पूरा हो जाता है। पुरानी देवठी में निवास करते हैं भगवान परशुराम श्रीरेणुकाजी के उत्थान के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार ने वर्ष 1984 में श्रीरेणुकाजी बोर्ड की स्थापना की। उसके बाद से श्रीरेणुकाजी विकास बोर्ड श्रीरेणुकाजी झील, मां रेणुकाजी मंदिर, पुरानी देवठी (भगवान परशुराम मंदिर) परशुराम तालाब व श्रीरेणुकाजी विकास बोर्ड के तहत आने वाले अन्य दर्शनीय स्थलों की देखभाल व उनके जीर्णोद्धार का कार्य करता है। उपायुक्त सिरमौर ही श्रीरेणुकाजी विकास बोर्ड के अध्यक्ष होते हैं। भगवान परशुराम के मंदिर को आज भी पुरानी देवठी के नाम से जाना जाता है और भगवान परशुराम यहां पर विराजमान हैं। भगवान परशुराम को तोपों की सलामी आजादी से पहले सिरमौर रियासत के समय में भी श्री रेणुकाजी मेला बड़े धूमधाम से मनाया जाता था। सिरमौर रियासत कालीन समय में रियासत के महाराजा भगवान परशुराम की पालकी का स्वागत करने गिरी नदी के तट पर आते थे। उस भगवान परशुराम की पालकी गिरी नदी पर पहुंचने पर तोपों की सलामी की जाती थी। जब देश आजाद हुआ, तो भगवान परशुराम ने पालकी की अगुवाई का जिम्मा प्रदेश के मुखिया मुख्यमंत्री को सौंपा और विदाई की जिम्मेवारी राज्यपाल को दी गई। तब से प्रतिवर्ष श्री रेणुकाजी मेले के शुभारंभ अवसर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री व समापन समारोह में राज्यपाल पालकी को कांधा देने आते हैं।

- राजन पुंडीर, नाहन


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