हिमाचल में परंपरागत तीरंदाजी पर्व की शुरुआत, जानें क्यों शुरु हुई ये परंपरा
हिमाचल के किन्नौर में तीरंदाज पर्व की परंपरा सदियों पुरानी है मान्यता है कि अनिष्ठ बुरी शक्तियों के प्रकोप को नष्ट करने के उद्देश्य से रोपा खेल का आयोजन होता है।
रिकांगपिओ, समर नेगी। किन्नौर जिले के पूह खंड के रोपा गांव में तीरंदाज पर्व की परंपरा सदियों पुरानी चली आ रही है। ऐसी मान्यता है कि रोपा वासियों की देवी मां दुर्गा माघ महीने के दूसरे पखवाड़े तक स्वर्ग यात्रा पर जाती हैं। उस दौरान मां दुर्गा स्वर्ग में अन्य देवी-देवताओं के साथ पासा खेलती हैं। उस पासा खेल में कृषि व्यापार, देश-विदेश को लाभ, प्राकृतिक आपदा, सामाजिक एवं जनहित सहित वार्षिक शुभ एवं अशुभ फल का निर्णय पासा खेल में हार या जीत के आधार पर होता है। जीत और हार का फलादेश मां दुर्गा के माली-गूर माघ महीने के अंतिम दिन खेल द्वारा करते हैं। तीरंदाजी पर्व की शुरुआत रोपा गांव में बड़े धूमधाम के साथ हुई।
तीरंदाजी खेल की मान्यता : रोपा
निवासी भगत जितस, सोनू ठोलपा, ठाकुर सैन, चरन, आनंद ठोलपा, अश्वनी नेगी का कहना है कि दुर्गा माता के स्वर्ग भ्रमण के साथ ही रोपा गांव में तीरंदाज खेल पर्व का प्रारंभ होता है। मां दुर्गा के स्वर्ग वापसी के साथ ही इस खेल का समापन होता है। मां दुर्गा के स्वर्ग भ्रमण पर जाते ही उनकी अनुपस्थिति के दौरान अनिष्ठ, बुरी शक्तियों के प्रकोप को नष्ट करने के उद्देश्य से रोपा गांव में तीरंदाजी खेल का आयोजन होता है। इस खेल में गांव के प्रत्येक परिवार से एक व्यस्क पुरुष सदस्य का भाग लेना अनिवार्य होता है। जो परिवार इस खेल में भाग नहीं लेगा उसे बतौर जुर्माना देना पड़ता है।
तीर चलाने का लक्ष्य
तीर चलाने का लक्ष्य दो दिशाओं, पूर्व और पश्चिम की तरफ होता है। दोनों दिशाओं के लक्ष्य की दूरी करीब 100 फीट से भी अधिक होती है। लक्ष्य यानी लकड़ी का तख्त चार इंच वर्गाकार का होता है। पूर्व के लक्ष्य को डायन व पश्चिम के लक्ष्य को राक्षस का प्रतीक माना जाता है। खिलाड़ियों को बारी-बारी दोनों तरफ से लक्ष्य को भेदना होता है। प्रतिभागी एक बारी में केवल तीन तीर का ही प्रयोग कर सकता है।
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विजेता दल की घोषणा
अंत में दल का प्रत्येक प्रतिभागी एकएक तीर अपने-अपने मुखिया को लक्ष्य साधने के लिए देता है। दोनों ही दलों के मुखिया खिलाड़ियों से प्राप्त तीर का प्रयोग करने के बाद विजेता दल की घोषणा की जाती है। उत्सव का समापन पारंपरिक शैली में दावत एवं लोक नृत्य का आनंद लेते हुए होता है।
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