भागीदारी निभाएं जन तभी बचेंगे वन
वनों से हिमाचल की जनता का जुड़ाव खत्म हो रहा है। इससे पर्यावरण संरक्षण भी नहीं हो रहा है।
राज्य ब्यूरो, शिमला : वनों से हिमाचल की जनता का जुड़ाव खत्म हो रहा है। पहले समुदायों के स्तर पर वनों का संरक्षण होता था। राज्य सरकार व वन विभाग के जरिये किसानों के हकों पर लगाई गई पाबंदी के कारण वन बचाने के कार्य में गिरावट आई है। जंगली जानवरों के लिए भी वनों में फलधार पौधे नहीं लगाए गए हैं। इससे जंगली जानवर लोगों की फसलें उजाड़ रहे हैं। जनता की भागीदारी के बिना न वन बचेंगे और न पर्यावरण संरक्षण होगा।
प्रदेश में दूसरे पौधे भले ही बड़े न हो पाए हों लेकिन चीड़ जरूर पेड़ बने हैं। कई वर्षो से चीड़ के पौधे प्रदेशभर में रोपे गए जो अब पेड़ बनकर किसानों के लिए परेशानी का सबब बने हैं। इन पेड़ों के घने वन राज्य के हरित आवरण में वृद्धि कर रहे हैं पर ये अपने नीचे घास नहीं उगते देते हैं। वनों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण भी यही है। चीड़ की पत्तियों से गर्मी के मौसम में सर्वाधिक आग लगती है। अब विभाग ने भी चीड़ की नर्सरी उगाने से तौबा कर ली है। ऐसे वन तेंदुए जैसे जानवरों की पनाहगार साबित हो रहे हैं। इससे लोगों व तेंदुओं के बीच टकराव बढ़ गया है। कई तेंदुए आदमखोर बन गए हैं। कैसे मिलेगा पशुओं को चारा?
हिमाचल में नौ लाख से अधिक किसान परिवार हैं। कृषि के साथ ये लोग पशुपालन भी करते हैं। लेकिन पशुओं के लिए चीड़ के वनों में चारा नहीं मिल पाता है। वन विभाग फलदार पौधों को कम रोपता है। चौड़ी पत्ती वाले पौधों के अभाव में जंगली जानवर रिहायशी इलाकों का रुख कर रहे हैं। ऐसे में पशुधन का क्या होगा? किसानों को चारे आदि की आपूर्ति के लिए पड़ोसी राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे पशुपालन घाटे का सौदा साबित हो रहा है। बंदरों की नसबंदी पर करोड़ों खर्च
बंदरों की नसबंदी पर सरकार ने अब तक 30 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किया है। इसके बावजूद बंदरों की समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो रहा है। यही पैसा अगर फलदार पौधों पर खर्च किया होता तो नतीजे बेहतर आते। बंदरों के अलावा जंगली सुअर, नील गाय आदि जानवर भी किसानों की फसलों को उजाड़ रहे हैं। बंदर वनों में रहने की अपेक्षा घरों के आसपास मंडराते रहते हैं। वे हिंसक होने लगे हैं। बंदर प्रदेश की 38 तहसीलों व नगर निगम शिमला में वर्मिन घोषित हैं। एक साल तक इन्हें मारने पर रोक हटाई गई है। हालांकि बंदरों को मारने के लिए किसान आगे नहीं आ पा रहे हैं। कहीं धार्मिक आस्था आड़े आ रही है तो कहीं कि सान महंगी गोली-बारूद खरीदने की स्थिति में नहीं हैं।