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खेत तक न पहुंचे वो कैसा शोध

राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने कहा कि वो कैसा शोध है जो खेत तक नहीं पहुंचे, उसका कोई लाभ नहीं है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 23 Oct 2018 07:46 PM (IST)Updated: Tue, 23 Oct 2018 07:46 PM (IST)
खेत तक न पहुंचे वो कैसा शोध
खेत तक न पहुंचे वो कैसा शोध

राज्य ब्यूरो, शिमला : राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने कहा कि वो कैसा शोध है जो खेत तक नहीं पहुंचे। वैज्ञानिकों के उस शोध का तब तक कोई फायदा नहीं है जब तक कि उससे किसान लाभान्वित न हों। उन्होंने सुझाव दिया कि छरमा (सीबकथॉर्न) से संबंधित साहित्य स्थानीय भाषा में प्रकाशित किया जाए।

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राज्यपाल ने शिमला के पीटरहॉफ में छरमा उत्पादन पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि प्रदेश के सीमावर्ती ठंडे जनजातीय क्षेत्रों में इस पौधे को बड़े पैमाने पर विकसित किया जा सकता है। इससे किसानों की आय बढ़ेगी। उन्होंने छरमा उत्पादन के मामले में हिमाचल के पिछड़ने पर चिंता जताई। बकौल आचार्य देवव्रत, देश की सीमाओं पर तैनात सैनिकों को छरमा का उपयोग कर कई रोगों से बचाया जा सकता है। छरमा में विटामिन सी, ए, के व बी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर के वैज्ञानिक व वन विभाग संयुक्त कार्य कर छरमा का उत्पादन बढ़ाए। राज्यपाल ने डीआरडीओ के पूर्व निदेशक पद्मश्री डॉ. ब्रह्मा सिंह की पुस्तक न्यू ऐज हर्बल का विमोचन किया। सम्मेलन में छरमा के औषधीय गुणों की जानकारी दी गई। भारत में छरमा की तीन प्रजातिया विकसित की गई हैं। इनमें लेह बेरी प्रमुख है। जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर के कुलपति प्रो. तेज प्रताप सिंह ने छरमा का अंतरराष्ट्रीय परिदृष्य बताया। इससे पूर्व सीबकथॉर्न एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. आरसी साहने ने राज्यपाल का स्वागत किया। सम्मेलन में कृषि विवि पालमपुर के कुलपति प्रो. अशोक सरियाल व कई वैज्ञानिक उपस्थित थे। छरमा के उत्पादन में हिमाचल पीछे

चीन ने छरमा से 250 उत्पाद तैयार कर इसे आमदनी का जरिया बना लिया है। पाकिस्तान भी छरमा उत्पादन के मामले में भारत से आगे है। हिमाचल में छरमा के पौधे के विकास के लिए अनुकुल परिस्थितियां हैं। देश के पांच राज्यों में इसका उत्पादन हो रहा है जिनमें हिमाचल सबसे पीछे है। लेह में इसका सर्वाधिक उत्पादन हो रहा है। देश में करीब 70 तकनीकी संस्थान छरमा पर कार्य कर रहे हैं। करोड़ों रुपये खर्च मगर नतीजा शून्य

हिमाचल में छरमा पर वर्ष 1988 से काम हो रहा है मगर नतीजा शून्य है। वर्ष 1990 में केंद्र सरकार की एक परियोजना के तहत करोड़ों रुपये छरमा के पौधे का विकास करने पर खर्च किए गए। छरमा के औषधीय गुण हैं और इसके उत्पाद की बाजार में काफी माग है। दुर्गम क्षेत्रों में इसकी खेती से वहां किसानों के पलायन को रोका जा सकता है।


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