गुमनाम सी जिंदगी को मिल गई पहचान
शिमला के अस्पताल में भर्ती 18 रोगी पूरी तरह से स्वस्थ हो गए हैं
जागरण संवाददाता, शिमला
यह ऐसे लोग थे जिनके रहने का लिए कोई ठिकाना नहीं था। शरीर पर कपड़े तो होते थे, लेकिन जगह-जगह से फटे और मैले। खाने को कुछ मिला तो पेट भर लिया, वरना भूखे-प्यासे सो गए। किसी की रात सड़क किनारे कटती तो कोई रेन शेल्टर में ठिठुरता। कोई नाम या पता पूछे तो मुंह में कुछ बड़बड़ा देते। कोई रोटी खिला तो कोई पैसे देकर मानवता का फर्ज अदा कर जाए तो ठीक नहीं तो जैसे तैसे पेट की भूख शांत कर लेते। यह वह लोग थे जो किसी न किसी मानसिक रोग का शिकार थे, जिन्हें घरवालों ने दुनिया के रहम पर छोड़ दिया या वह खुद गुमनाम हो गए थे।
फिर उनकी जिंदगी में कुछ ऐसे फरिश्ते आए, जिन्होंने उन्हें शिमला के मानसिक रोग अस्पताल एवं पुनर्वास केंद्र तक पहुंचाया। उन्हें यह नहीं पता होता कि अस्पताल तक लेकर कौन आया था। मगर जिंदगी में कब क्या हुआ था, अब सब याद आ गया है। उन्हें अपने घर का भी पता है। साथ ही जिंदगी में वह पहचान लौट आई है जिससे वह अंजान थे। प्रदेश के एकमात्र मानसिक रोग अस्पताल बालूगंज में इस समय 56 मरीज उपचाराधीन हैं, जिनमें से 18 बिल्कुल स्वस्थ हो गए हैं। अस्पताल प्रबंधन उन्हें घर भेजने की तैयारी में है। किसी को मां की याद आ रही है तो कोई पत्नी या बच्चों के पास जाना चाहता है। हालांकि अस्पताल प्रबंधन भी कागजी कार्रवाई के बिना उन्हें परिजनों तक नहीं पहुंचा सकता है।
इलाज से उनकी जिंदगी में खुशियां लौट आई हैं। ऐसे में वह चिकित्सकों से लेकर चपरासी तक का धन्यवाद करते नहीं थक रहे हैं। वहीं अस्पताल प्रबंधन भी एक साथ 18 मरीजों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ना बड़ी उपलब्धि के तौर पर देख रहा है। इसी साल दो मरीजों को स्वस्थ कर घर भेज दिया है। इन 18 मरीजों में नेपाल, पश्चिम बंगाल, हैदराबाद, महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्य प्रदेश, कांगड़ा और शिमला आदि क्षेत्रों के रहने वाले हैं। इनमें छह महिलाएं शामिल हैं। लंबी है विभागीय प्रक्रिया
मानसिक रोगी जब ठीक हो जाते हैं तो उन्हें घर भेजने के लिए कागजी प्रक्रिया काफी लंबी होती है। उन्हें घर तक छोड़ने के लिए पुलिस विभाग से एस्कार्ट की जरूरत होती है। सामाजिक आधिकारिता विभाग में प्रक्रिया तीव्र गति से पूरी नहीं होती है।
पहले भी मिला चुके हैं परिजनों से
कर्नाटक में मैसूर के कमलापुरा की 26 साल की पद्मा की शादी मैसूर के पालिया गाव में हुई थी। पति ने दूसरी शादी कर पद्मा को घर से निकाल दिया। उसे पद्मा नाम भी मानसिक रोगी अस्पताल ने दिया है। उसका असली नाम उचम्मा है। वह मायके से दादी को इलाज करवाने बेंगलुरु लाई। उसे कुछ लोगों ने लूट लिया और पीटकर बेहोशी की हालत में ट्रेन के डब्बे में फेंक दिया। इसके बाद वह हिमाचल के कागड़ा पहुंच गई। कागड़ा पुलिस ने टांडा अस्पताल में भर्ती करवा दिया। बाद में उसे शिमला के मानसिक रोग अस्पताल एवं पुनर्वास केंद्र भेज दिया। पद्मा हिंदी या अंग्रेजी नहीं समझती है। शिमला की संस्था परफार्मेस ग्रुप ऑफ आर्ट्स के संपर्क में आई। संस्था की अध्यक्ष डॉ. सुनीला शर्मा ने कॉलेज में प्रिंसिपल जॉन वर्गिस से बात की तो पद्मा की बात कन्नड़ भाषा के कुछ छात्रों से करवाई गई। दक्षिण भारतीय भाषाओं का ज्ञान रखने वाली स्वाति ने पद्मा की कहानी का पटाक्षेप किया। संस्था ने मामला मुख्यमंत्री जयराम के सामने उठाया। मामला कर्नाटक के मुख्यमंत्री तक पहुंचा। उन्होंने मैसूर के डीसी को पद्मा को वापस लाने के आदेश दिए। ------------
मानसिक रोग के 18 मरीज स्वस्थ हो गए हैं। छह मरीज ऐसे हैं जो मेंटली रिटायर्ड हैं। उनके ठीक होने की संभावना न के बराबर है। ऐसे में उन्हें अस्पताल में नहीं रखा जा सकता है। स्वस्थ हो चुके लोगों को घर पहुंचाने के लिए पुलिस एवं सामाजिक अधिकारिता विभाग को पत्र लिखा है। लोग मानसिक रोग का उपचार करवाने से कतराते हैं। सही समय पर अगर चिकित्सक तक पहुंचें तो हर रोग का इलाज संभव है।
डॉ. संजय पाठक, वरिष्ठ चिकित्सक अधीक्षक, मानसिक रोग अस्पताल शिमला