रास्ता नहीं भूले तेंदुएं उन्हें यहीं आना था
सूचना एवं तकनीकी के इस दौर में....हर मर्ज के इलाज के इस दौर में मनुष्य और इन प्राणियों के बीच द्वंद्व लगातार बढ़ा है। आने वाले समय में दोनों ही पक्षों में द्वंद्व और बढ़ेगा।
शिमला, नवनीत शर्मा। जिसका घर उजाड़ दिया गया हो वह कहां जाएगा? जाहिर है, बाहर ही आएगा! गाड़ी के नीचे तेंदुआ था तो कैमरे भी चमक उठे। मनुष्य उससे भयभीत और वह मनुष्यों से डरा हुआ। आत्मरक्षा की मुद्रा में नुकीले दांत दिखाता हुआ। लोग उसकी कद काठी देख कर हिसाब लगा रहे थे। किसी की नजर में वह अभी बच्चा था तो कोई यह चेतावनी दे रहा था कि यह बच्चा नहीं है और छूटते ही, ‘सबको रगड़ देगा!’ वह पहली बार नहीं आया था शिमला। न यह पहला तेंदुआ था और न आखिरी। हां...यह सांकेतिकता और संयोग अवश्य कुछ कहना चाहते हैं कि वह राजधानी की जिला अदालत में ही क्यों आया। व्यवस्था ने कुछ दशकों में अपना रूप ऐसा कर लिया है कि जर्रे-जर्रे को अदालत की जरूरत है।
सीधे तौर पर दो पक्ष हैं। एक मनुष्यों का और दूसरा जीव जंतुओं का। मनुष्यों को विकास चाहिए। वह जंगल में अमंगल करने से आए या किसी तरह आए...शर्त यह है कि आए। जानवरों का पक्ष यह है कि हरियाली के लिए जाने जाते हिमाचल प्रदेश में गौरैया या चिड़िया चुपचाप विलुप्त होती गई। कहीं कोई शोक नहीं। कौव्वे गुम हुए कहीं कोई मलाल नहीं। गिद्ध लगातार कम हुए, सेमिनारों के अलावा कोई चर्चा हुई हो, देखने में नहीं आई। अब जंगली जानवर आने लगे। चंबा में भालू सक्रिय हैं...प्रदेश के दूसरे हिस्सों में जंगली सुअर सरगर्म हैं....बंदर तो ऐसे उत्पाती कि कई विधानसभा चुनावों में मुद्दा तक बन गए।
अब तेंदुए एक डेढ़ दशक से शहरों और बस्तियों में आने लगे। त्रासदी यह है कि सूचना एवं तकनीकी के इस दौर में....हर मर्ज के इलाज के इस दौर में मनुष्य और इन प्राणियों के बीच द्वंद्व लगातार बढ़ा है। मनुष्य को यह खासियत हासिल है कि उसके नाम पर घर और जमीन है। घर के बाहर नाम भी लगा है। जबकि पृथ्वी नामक ग्रह इन प्राणियों का भी उतना ही है लेकिन उनके नाम कोई कोई रजिस्ट्री नहीं है। उनकी कोई मिल्कियत नहीं है।
हिमाचल की चरागाहें उजड़ रही हैं, ये वहां क्यों रहें? किसी भी गांव या बस्ती के अंतिम छोर पर एक क्षेत्र ऐसा होता था, जहां घास या फल आदि के बूटे होते थे। एक प्रकार से सुरक्षित क्षेत्र होता था। उसके बाद जंगल या घना जंगल होता था। जंगली जानवर उस क्षेत्र तक तो आते थे, बस्तियों में नहीं आते थे। यह नियंत्रण रेखा जैसी थी। जैसे-जैसे यह रेखा महीन होकर मिटती गई...वैसे-वैसे मनुष्य और जानवरों का द्वंद्व बढ़ने लगा। अब यह रोज की समस्या है। यूं ही तो तेंदुआ माल रोड पर नहीं घूमता रहा। यूं ही तो उसे किसी के रसोईघर तक आने की जरूरत नहीं पड़ी। अपने क्षेत्र में राजा बन कर रहने के बजाय वह इस नियंत्रण रेखा को लांघ रहा है तो इरादे साफ हैं कि वह या तो खुद नहीं रहेगा या किसी को रहने नहीं देगा।
एक और पक्ष यह है कि परियोजनाओं और विकास के दूसरे कामों के लिए हिमाचल प्रदेश में जो कामगार नेपाल आदि से आते हैं, वे शिकार भी करते हैं। ये मामले सामने आ चुके हैं। जाहिर यह भी जंगली जानवरों के भोजन और उनकी बनी-बनाई व्यवस्था को भंग करने जैसा है।
एक पक्ष कुत्तों की बढ़ती संख्या से जुड़ा है। अब यह संख्या इतनी बढ़ रही है कि कोई भी भूखा तेंदुआ इनकी खोज में भी बस्ती, गांव या शहर का रुख करेगा। कुत्तों की संख्या बढ़ने का एक कारण वह प्रवृत्ति है जिसमें भोजन लगातार व्यर्थ किया जा रहा है और खुले में फेंका जा रहा है। इससे कुत्तों के झुंड के झुंड गांवों और शहरों में मिल जाएंगे। शिमला के आसपास के इलाकों में लगातार हो रहे निर्माण के कारण जंगल कम हुए हैं। जहां पौधरोपण हुआ है, वहां चीड़ या देवदार या सेब के पौधे भी रोप दिए जाएं तो भी वह क्षेत्र इनके अनुरूप तो नहीं हुआ।
इन पक्षों पर गौर नहीं किया गया तो आने वाले समय में दोनों ही पक्षों में द्वंद्व और बढ़ेगा। द्वंद्व बढ़ने का अर्थ युद्ध से भी जुड़ता है और युद्ध किसी मसले का हल नहीं, स्वयं एक मसला होता है। विनाश किसी भी पक्ष का हो, वह प्रकृति का विनाश होगा। इस समय मनुष्य की करनी से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है... पारिस्थितिकीय संतुलन गड़बड़ा रहा है। प्रकृति चेता रही है, सबक दे रही है लेकिन गेहूं के साथ घुन भी पिस रहा है। ये मासूम आंखों वाली प्रकृति जिला अदालत में किसी गाड़ी के टायरों के नीचे छुपने वाली थी? यह विकास के नाम पर सब बेतरतीब कर देने का सिला है जो हम सबको मिला है।
तेंदुए या दीगर जानवर कह तो कुछ नहीं पाते लेकिन अगर उन्हें यह सुविधा मिल जाए तो शायद हफीज
बनारसी की यही बात कहेंगे :
समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम
हमारे घर के बराबर तुम्हारा भी घर है