ये हाथ संभाल कर रखो ठाकुर!
Electoral politics Himachal हिमाचल कांग्रेस के कुछ बड़े नेता न केवल अहंकार के कुएं में धंसे और फंसे हैं बल्कि कीचड़ भी उछाल रहे हैं।
शिमला, नवनीत शर्मा। व्यक्ति हो या संस्थाएं, अतीत किसी की मंजिल नहीं हो सकता। हां, कोई पीछे देख कर सफर के लिए सबक ले तो उसे बुद्धिमान कहते हैं। अक्सर जंगल में शेर भी आगे चलते हुए कभी-कभी पीछे की ओर देखता है...जिसे सिंहावलोकन कहा जाता है। लेकिन जो मंजिल और उद्देश्यों की ओर न देखते हुए अतीत के कुएं में धंसा और फंसा रहे, उसे अक्लमंद नहीं कहा जाता। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के साथ यही हो रहा है।
इसके कुछ बड़े नेता न केवल अहंकार के कुएं में धंसे और फंसे हैं बल्कि कीचड़ भी उछाल रहे हैं। इससे कांग्रेसी हाथ के हाथ तो साफ नहीं होगे... हां, ‘कमल’ के लिए उपयुक्त परिस्थितियां अवश्य बन रही हैं। जब विपक्ष बिखरा हुआ हो तो पक्ष जैसा भी हो, मजबूत ही दिखता है...क्योंकि सामने प्रतिपक्ष होता ही नहीं। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में कांग्रेस की पटकथा का यह मोड़ अप्रत्याशित है।
वीरभद्र सिंह को प्रदेशाध्यक्ष के रूप में सुखविंदर सिंह सुक्खू कभी पसंद नहीं आए... छह साल पूरे करने पर प्रदेशाध्यक्ष पद से सुखविंदर सिंह सुक्खू का इस्तीफा हो गया। हर पार्टी के अंदर कई पार्टियां हो ही जाती हैं, ...कांग्रेस में भी हैं...सबको कुलदीप सिंह राठौर उपयुक्त लगे और उनके नाम पर सहमति बन गई। संगठन में कुलदीप सिंह राठौर जैसे लोगों का मनोनयन इस तथ्य को तसदीक करता है कि राजनीतिक दलों में भी ऐसा समय अवश्य आता है जब ऐसे लोगों की कीमत पता चलती है। ऐसे लोग...जिन्होंने पार्टी को सींचा हो, उसे मजबूत करने में भूमिका निभाई हो। जो अपना बादल तलाशने के लिए उम्र भर धूप में नहाए हों। कुलदीप राठौर तो बकौल शायर यह हैं :
अपना बादल तलाशने के लिए
उम्र भर धूप में नहाए हम
ऐसे लोग... जो चुनावी राजनीति से दूर रहते हों, बुद्धिजीवी हों, सभी गुटों को सूट करते हों और सबको साथ लेकर चलते हों। यह सब हो गया....तो अब विषवमन किसके लिए? पार्टी को वीरभद्र के जनाधार की जरूरत थी, सुक्खू का कार्यकाल पूरा हो चुका था, कुछ सांसद अनुराग ठाकुर के बयान भी तात्कालिक थे और सुक्खू हटा ही दिए गए तो अब सबको आगे देखना चाहिए।
सुक्खू के राजनीतिक पुनर्वास की चर्चा है लेकिन वह कहां होगी, यह देखना होगा। हिमाचल के कोटे से सचिव तो पहले भी कई हैं। जहां तक हमीरपुर संसदीय सीट का ताल्लुक है, वहां सुक्खू की राह में अभिषेक राणा और राणा की राह में सुक्खू हैं। यह अलग प्रसंग है।
हैरत यह है कि एक दूसरे के खिलाफ भरे पड़े होने का असर अभिव्यक्ति कैसे पा रहा है। किसी ने कहा कि अमुक तो कबाड़ थे, उनके कारण पार्टी कबाड़ हो गई। किसी ने प्रत्युतर में कहा कि अमुक के कारण सरकार फिर नहीं बन पाई। जो भी हो, अपने जख्मी अहंकार के प्रदर्शन से प्रतिपक्ष अपना दायित्व नहीं निभा पाएगा। एक दिन वीरभद्र सिंह सुक्खू के खिलाफ बोलते हैं। दूसरे दिन 11 विधायक सुक्खू के पक्ष में बोलते हैं।
तीसरे दिन फिर सुक्खू के पक्ष में कुछ पूर्व प्रदेशाध्यक्षों के बयानों का दावा किया गया। यह क्रम कहां समाप्त होगा, यह कहना कठिन है। दिलचस्प यह है कि लड़ना इन्हें भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ है जो आराम से सरकार चला रही है। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं लेकिन कांग्रेस के सिर पर कुछ अहंकारों का नर्तन जारी है। बकौल मुहावरा यही गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं है? एक मजबूत विपक्ष बनना किसकी जिम्मेदारी है?
दरअसल कांग्रेस के निशाने पर सिर्फ कांग्रेस है। हां, मुकेश अग्निहोत्री ने बतौर नेता प्रतिपक्ष अपनी धार तीखी रखी है और सत्ता पक्ष की नाक में दम किया है। लेकिन सदन से बाहर कांग्रेस भाजपा के बजाय कांग्रेस की विरोधी हो जाती है। राजनीतिक लोग कई बार कहते हैं कि मनभेद नहीं होना चाहिए, मतभेद अवश्य हो सकता है। दरअसल मतभेद की दरारें कब मनभेद की कंदराओं में बदल जाएं यह पता नहीं चलता।
हिमाचल कांग्रेस में यही हुआ है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जिस व्यक्ति को प्रदेशाध्यक्ष बनाया है, उसे सबको स्वीकार करना ही होगा, यह तो संदेह से परे है। लेकिन जिस पार्टी को चुनाव के लिए तैयार होना चाहिए, उसके कुछ बड़े लोगों को नए अध्यक्ष के स्वागत का शिष्टाचार निभाने में भी समस्या है? जिस पार्टी के इतिहास की गरिमा का हवाला दिया जाता है, उसे इस समय यह सब करना चाहिए जो वह कर रही है?
परिवर्तन नियम है और वह हमेशा कुछ नया लेकर आता है। हिमाचल कांग्रेस में कभी वीरभद्र लाए थे, कभी सुक्खू लाए और अब अपेक्षा कुलदीप सिंह राठौर से है। हालांकि वह ऐसे समय में अध्यक्ष बने हैं जब उनकी पार्टी के वरिष्ठ सदस्य एक दूसरे को विशेष विशेषणों से अलंकृत करने में लगे हैं। उनके लिए प्रतिपक्ष जैसी सजगता प्राथमिकता नहीं है...प्रदेश की समस्याएं...जनहित...सब गौण है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ केवल बातों से फतह नहीं होते। हिमाचल में फिलहाल ऐसा न वक्त है, न संभावना।
दिलचस्प यह है कि हिमाचल कांग्रेस को अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के बड़ी कुर्सी के सपने को पूरा करने के लिए हाथ जुटाने थे। लेकिन ‘हाथ’ अपने ही ‘ठाकुरों’ के हाथों महफूज नहीं है। हाथ मलते रह जाना और बात है, हाथ मिलाते हुए बढ़ना और बात है।