टुकड़ों में बंटे राष्ट्रीय संस्थान का दर्द
केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश काे अब तक दिलासों के सिवा कुछ नहीं मिला।
शिमला, नवनीत शर्मा। राजनेताओं के लिए कुछ विषय इतने पुराने और नीरस हो जाते हैं कि उनका जिक्र तक मुनासिब नहीं समझा जाता। ऐसा ही एक मामला है केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश का। चुनाव के दिनों में इस विषय के सूखे हुए मुंह में सियासी पानी के छींटे फेंके जाते हैं और यह चुनाव तक ही जागृत अवस्था में आ जाता है। अपनी जमीन के इंतजार में भटकते केंद्रीय विश्वविद्यालय को अब तक दिलासों के सिवा कुछ नहीं मिला।
इस बीच हर बात पर अलग राय रखने वाले सांसद और पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अवश्य यह कह कर नई बहस के लिए माहौल बना दिया कि धर्मशाला के तपोवन स्थित विधानसभा परिसर को दर-दर भटकते
केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के लिए छोड़ दिया जाए। इसे सफेद हाथी की संज्ञा से विभूषित तो किया ही, यह भी कहा कि राजनीतिक लाभ के लिए जो गलती पहले की गई है, उसे सुधारने का यह सबसे बढ़िया
उपाय है। कुछ ऐसा ही विचार कुछ वर्ष पहले तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष बृज बिहारी लाल बुटेल ने भी व्यक्त किया था। लेकिन जहां खड्ड के किनारे उजड़े हुए स्कूली भवनों में भी राजकीय कॉलेज के बोर्ड टांग दिए गए थे, वहां इस विचार का स्वागत कौन करे। लोकतंत्र वहां हारता प्रतीत होता है जहां काम की बात पर बहस नहीं होती। गैर मुद्दे ही मुद्दों की हैसियत ओढ़ लेते हैं।
बहरहाल केंद्रीय विश्वविद्यालय की बात आती है तो विचार उठते हैं...उधार पर दिन काटने की कोई सीमा होती होगी? बंट कर जीने की कोई अवधि...टुकड़ों में तकसीम होकर आगे बढ़ने के क्या कोई कष्ट नहीं होते? होते होंगे, लेकिन संवेदनशील युवाओं के भविष्य से जुड़े मुद्दों के प्रति इतनी प्रतिरोधक क्षमता चंद लोगों ने विकसित कर ली है कि अब ‘कोई फर्क नहीं पड़ता’ मुहावरा हो गया है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में ही शाहपुर, धर्मशाला और देहरा में बंट चुके केंद्रीय विश्वविद्यालय के नसीब में करीब एक दशक बाद भी अपना भवन नहीं आया है।
दल थे, दल गए...सरकार सतत प्रक्रिया और इकाई के रूप में कार्य करती रही मगर धौलाधार के पहाड़ गवाह हैं कि कैसे एक राष्ट्रीय संस्थान उधार के भवन में दिन गुजार रहा है। आखिर कितने वर्षों की तपस्या चाहिए कि अपना भवन मिले? इंद्रूनाग, देहरा और जदरांगल के बीच झूलते इस प्रतिष्ठित संस्थान
का अपनी जमीन पर शिलान्यास अब भी बयानों और विज्ञप्तियों से आगे नहीं बढ़ा है।
अब तो यह तय भी हो चुका है कि एक भाग देहरा में बनना है और एक धर्मशाला में, इसके बावजूद लेटलतीफी ही नसीब के साथ नत्थी है। मंडी में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी आइआइटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश लगभग एक साथ शुरू हुए थे। मंडी के छात्र देश-विदेश में नाम कर रहे
हैं। इसरो और डीआरडीओ के प्रोजेक्ट ले रहे हैं। नाम कमा रहे हैं। इसके विपरीत केंद्रीय विश्वविद्यालय इसी गणित में उलझा हुआ है कि यह अपने सिर को कहां सुलाए, पीठ कहां रखे, टांगें कहां टिकाए और पैर कहां
पसारे। एक राष्ट्रीय संस्थान का इस प्रकार की अनुत्पादक क्रिया से ग्रसित होकर जाना इसके रुतबे के साथ अन्याय है। शांता कुमार की बात में सार्थक बहस के बीज साफ दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि एक ऐसा भवन जिसकी याद सबको साल में एक बार चार-पांच दिन के लिए आती है, अन्यथा वहां सन्नाटा ही चिंघाड़ता है...चुप्पी ही चिल्लाती है। केंद्रीय विश्वविद्यालय का आलम अब तक तो ऐसा है कि कृष्ण बिहारी नूर का शेर याद आता है- इतने हिस्सों में बंट गया हूं मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
हिमाचल प्रदेश सात साल से एक राष्ट्रीय संस्थान को नहीं संभाल पा रहा, इसे क्या कहा जाए? मुखर मंत्रियों को भी समझना चाहिए कि मामला शाहपुर बनाम धर्मशाला का नहीं है। यह प्रदेश का और देश के भविष्य का मामला है। यह हिमाचल की उस छवि का मामला है कि हम राष्ट्रीय संस्थानों को संभाल पा रहे हैं या नहीं?
प्रशासनिक खंड के साथ अस्थाई उपसर्ग विराजमान है। यह वही इमारत है जिसे लेखक गृह बनाया गया था और नाम पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम का दिया गया था। शैक्षणिक खंड भी दो हैं, जिनका नेतृत्व भी यही उपसर्ग कर रहा है।
सच यह है कि परंपराओं की रूढ़ियों को काटना हर किसी के वश में नहीं होता। कई बरस में कोई एक जाल कट जाए तो गनीमत। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा का मानसून सत्र हो गया। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने जितनी बार वाकआउट करना था किया। कानून-व्यवस्था का मुद्दा भी उठा। गर्मा-गर्मी हुई। मौसम ने कितना नुकसान पहुंचाया, आपदा प्रबंधन कैसे और कितना हो सका, इस पर परंपराओं के मुताबिक, कोई व्यापक चर्चा नहीं हुई। भाजपा सरकार बनने से पहले आस लेकर बैठे आउटसोर्स कर्मचारियों को यह अवश्य सुनने को मिला कि उनके लिए नीति कोई नहीं है, लेकिन उनका शोषण भी नहीं होने देंगे। यह कैसे होगा, यह सरकार ही जाने, लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालय पर कहीं से कोई चर्चा नहीं हुई। न अंदर न बाहर। अब देखें क्या होता है।