न रावण दहन, न रामलीला, फिर भी दुनिया भर में मशहूर है यहां का दशहरा
देश में एक दशहरा ऐसा भी होता है, जो आज दुनिया भर में अपनी अनोखी परंपराओं के कारण प्रसिद्ध हो गया है। इसमें न रावण जलता है न रामलीला होती है।
रविंद्र पंवर, कुल्लू। न इस दशहरे में रावण का वध या दहन होता है और न ही रामलीला का आयोजन। यहां शुरू होता है तो देव मिलन का समागम, देव संस्कृति की झलक और कुल्लू की उस परंपरा व संस्कृति का नजारा, जिसे देखने के लिए भारत ही नहीं विदेशों से भी लोग पहुंचते हैं। हिमालय की पर्वत मालाओं में बसे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में देव मिलन का समागम कुल्लू दशहरा, यूं ही अंतरराष्ट्रीय उत्सव नहीं बन गया। इसके पीछे ये सब आयाम हैं, जिन्होंने इस समारोह को पहले राज्य, फिर राष्ट्रीय और अब अंतरराष्ट्रीय उत्सव बना दिया है।
कुल्लू दशहरा यहां समूची घाटी में बसे ग्रामीण लोगों की देव आस्था एवं सामाजिक प्रतिष्ठा का ही प्रतीक नहीं, बल्कि जिला की सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक सदभाव का आइना और व्यापार का भी प्रमुख केंद्र है। 17वीं शताब्दी से शुरु हुए कुल्लू दशहरा उत्सव का स्वरूप आज इतना वृहद हो गया है कि इसमें रोजाना हजारों-लाख लोग शिरकत करते हैं, जिनमें कुल्लू ही नहीं, देश-विदेश के पर्यटक और देव संस्कृति पर अध्ययन करने वाले हजारों शोधार्थी भी शामिल हैं। किसी जमाने में महज खाद्यान्न, फल, सूखे मेवे, पशु एवं वस्त्र कारोबार से शुरु हुआ यह मेला आज करोड़ों का व्यापार करने वाला उत्सव बन गया है।
विदेशी सांस्कृतिक दलों भी करते हैं शिरकत
इसी के साथ विदेशी सांस्कृतिक दलों के कार्यक्रमों ने इस मेले को अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिलाया। कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा ऐतिहासिक होने के साथ-साथ सांस्कृतिक, धार्मिक व सामाजिक विचारधारा का अनूठा संगम है और व्यापारिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व है। देश की आजादी के बाद हिमाचल गठन के साथ ही घाटी के इस सदियों पुराने मेले को राज्य स्तरीय उत्सव बना दिया गया था, जबकि वर्ष 1970 में इसे राष्ट्रीय स्तर का दर्जा मिला। इसके बाद 1973 में रोमानिया के सांस्कृतिक दल ने यहां आकर कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसके अगले दो-तीन सालों तक रूस के कलाकार भी आए और तब से लेकर अब तक यहां हर वर्ष कई देशों के कलाकार आ रहे हैं। ऐसे में कुल्लू के दशहरा उत्सव को अंतरराष्ट्रीय मेला कहा जाने लगा और अब प्रदेश सरकार ने इसे अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा देने की अधिसूचना भी जारी कर दी है।
कुल्लू दशहरा का इतिहास
कुल्लू घाटी का परिदृश्य 17वीं शताब्दी के मध्य में बदल गया, जब एक नाटकीय घटनाक्रम में प्रभु राम अयोध्या से यहां आए और कुल्लू में शैव मत के साथ ही वैष्णव मत का भी उदय हुआ। कहा जाता है कि 1650 के दौरान कुल्लू के राजा जगत सिंह को ब्रह्म हत्या का शाप लग गया, जिससे उन्हें कोढ़ हो गया और कोई भी औषधी उन्हें स्वस्थ नहीं कर पाई। ऐसे में एक बाबा पयहारी ने उन्हें बताया कि अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान रघुनाथ की मूर्ति यहां लाकर यदि राजा उसके चरणामृत का सेवन व स्नान करेंगे तो लाभ होगा।
इस पर पंडित दामोदर को वहां से मूर्ति लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। बताया जाता है कि बड़े जतन से जब मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो वहां उन्हें पकड़ लिया गया। उस समय ऐसा करिश्मा हुआ कि जब अयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वह इतनी भारी हो गई कि कइयों के उठाए से नहीं उठी और जब यहां के पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई। ऐसे में पुरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या वालों ने मूर्ति को कुल्लू लाने दिया।
सबसे पहले इस मूर्ति का पड़ाव मंडी-कुल्लू की सीमा पर मकड़ासा में हुआ, जिसके बाद इसे मणिकर्ण के मंदिर में स्थापित किया गया। बाद के समय में रघुनाथ की मूर्ति को कुल्लू में स्थापित किया गया और उनके आगमन में राजा जगत सिंह ने यहां के सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, जिन्होंने भगवान रघुनाथ को सबसे बड़ा मान लिया। साथ ही राजा ने भी अपना राजपाठ त्याग कर भगवान को अर्पण कर दिया और स्वयं उनके मुख्य सेवक बन गए, यह परंपरा आज भी कायम है, जिसमें राज परिवार का सदस्य रघुनाथ जी का छड़ीबरदार होता है। पुराने समय से ही यहां का दशहरा अपनी विशिष्ट परंपरा के साथ मनाया जाता है।
कुल्लवी नाटी का वल्र्ड रिकार्ड
वर्ष 2015 में दशहरा स्थल ढालपुर मैदान में लगभग 13 हजार महिलाओं ने पारंपरिक परिधान में सैकड़ों वाद्य यंत्रों पर कुल्लवी नाटी की, जिसे गिनिज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड में स्थान मिला। हालांकि कुल्लवी नाटी और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम दशहरे में आरंभ से होते आ हैं, जिसे पहले देवताओं के शिविर के सामने किया जाता था, लेकिन जैसे-जैसे आयोजन बढ़ता गया, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का स्तर भी शिखर चूमता रहा। आज उत्सव के दौरान बाकायदा सात सांस्कृतिक संध्याएं आयोजित की जाती हैं, जिसमें बालीवुड के नामचीन कलाकार ही भाग नहीं लेते, बल्कि विदेशी कलाकार भी यहां के ओपन थियेटर कलाकेंद्र में अपनी प्रस्तुतियां देते हैं।
भुवनेश्वरी माता की पताका से रथयात्रा
अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे का मुख्य आकर्षण भगवान रघुनाथजी की रथयात्रा माता भुवनेश्वरी की पताका लहराए जाने के बाद ही शुरु होती है। कहा जाता है कि बरसों पहले कुल्लू के एक राजा ने दशहरा मेले के लिए माता को ढालपुर में लाने के लिए अपने दूत भेजे। यह लोग जबरदस्ती भेखली मंदिर से माता का रथ लेकर आने लगे और अभी यह आधे रास्ते तक ही पहुंचे थे कि राजमहल में हर तरफ से सांप ही सांप निकलने लगे और छोटा सा सरवरी नाला नदी का रूप लेकर महल के प्रांगण तक पहुंच गया। राजा ने पुजारियों से इसका कारण जाना तो पता चला कि मां भुवनेश्वरी का प्रकोप है, जिस पर राजा की ओर से माफी मांगी गई और वचन दिया कि माता को उनकी मर्जी के बिना कभी दशहरा मेले में नहीं लाया जाएगा। इसके बाद से ही परंपरा चल पड़ी कि जब भुवनेश्वरी माता का रथ मंदिर से श्राण बेहड़ तक आएगा और गुर पताका लहराकर नरसिंघे की ध्वनि करेंगे तो ही ढालपुर मैदान से रथयात्रा शुरु होगी।
माता हिडिंबा राजपरिवार की दादी
मनाली में स्थापित माता हिडिंबा कुल्लू राजपरिवार की दादी हैं, जिनके आने के बाद से ही दशहरा उत्सव एवं रथयात्रा की विधिवत तैयारियां शुरु होती है। विजय दशमी की सुबह माता अपने रथ अथवा पालकी में सवार होकर जैसे ही रामशीला पहुंचती है तो राजपरिवार का सदस्य उनके स्वागत के लिए वहां पहुंचता है। उन्हें ससम्मान राज महल लाकर पूजा-अर्चना की जाती है और माता वहां राजा को आशीर्वाद देती है, जिसके बाद आगे का आयोजन शुरु होता है। मान्यता है कि कुल्लू राजवंश के प्रथम शासक विहंगमणिपाल को एक बुजुर्ग औरत के भेष में माता हिडिंबा ने ही शासन बख्शा था।
नहीं जलते रावण, कुंभकर्ण व मेघनाथ के पुतले
आश्विन मास की दशमी से शुरु होने वाले कुल्लू के दशहरे की सबसे बड़ी बात कि यहां देश के अन्य हिस्सों की तरह रावण, कुंभकर्ण एवं मेघनाथ के पुतले नहीं जलाए जाते। यही नहीं कुल्लू में रामलीला का मंचन भी नहीं किया जाता। कुल्लू घाटी का यह प्राचीन उत्सव दशहरे के दिन से शुरु होता है, जिसके सातवें दिन लंका बेकर में पशु बलि के साथ तीन झाड़ियों को जलाया जाता है और इन्हें ही रावण, कुंभकर्ण व मेघनाथ का प्रतीक माना जाता है।
ललचाते हैं व्यंजन
दशहरे के दौरान जगह-जगह लगे व्यंजनों के स्टॉल भी लोगों को खूब ललचाते हैं। घाटी के अपने पकवान हैं, जो यहां सालों से बनते आए हैं, जो क्षेत्र में सर्दी के लिहाज से पकाए जाते थे और आज परंपरा बन गई है। इनमें प्रमुख रूप से गेहूं के आटे को खट्टा करके बन की तरह सिडू बनाया जाता है, जिसके अंदर स्वाद के हिसाब से अखरोट, मूंगफली, अफीमदाना का मीठा या नमकीन पेस्ट भरा जाता है।
हथकरघा, कुल्लू दशहरे की शान
कुल्लू हथकरघा उत्पादन, यहां के अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव की विशेष शान है, जो यहां के बाशिंदों के हुनरमंद हाथों से तैयार किए जाते हैं। हालांकि कुल्लू घाटी सहित प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर ऊनी वस्त्रों का उत्पाद बहुत पुराना है, लेकिन 20वीं सदी में यहां सुनियोजित तरीके से व संगठित रूप में हथकरघा उद्योग विकसित हुआ। इसमें शॉल के अलावा यहां की कुल्लवी टोपी, मफलर, मोजे व स्टॉल भी हथकरघा के विशेष उत्पाद हैं।
19 से शुरू होगा दशहरा
कुल्लू का ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव इस बार 19 से 25 अक्टूबर तक मनाया जाएगा। इसके लिए मेला समिति ने सभी तैयारियां पूरी कर ली हैं।