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राजनीति के बाग में लेखन के फूल

writer in political era himachal pradesh राजनीतिक उठापटक के खेल के बावजूद साहित्य और पहाड़ी भाषा के विस्तार के लिए उनके प्रयास में कमी नहीं आई।

By Rajesh SharmaEdited By: Published: Sat, 23 Mar 2019 03:36 PM (IST)Updated: Sat, 23 Mar 2019 03:36 PM (IST)
राजनीति के बाग में लेखन के फूल
राजनीति के बाग में लेखन के फूल

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। हिमाचल प्रदेश में राजनीति की शोभा बढ़ाने वाली हस्तियों का साहित्य, सृजन और भाषा के पैरोकार के रूप में भी योगदान रहा है। राजनीतिक उठापटक के खेल के बावजूद साहित्य और पहाड़ी भाषा के विस्तार के लिए उनके प्रयास में कमी नहीं आई। चाहे वह पूर्व मुख्यमंत्री वाइएस परमार हों या शांता कुमार। लाल चंद प्रार्थी नेता होने के साथ ही कई भाषाओं के ज्ञाता रहे हैैं। पहाड़ी के प्रचार-प्रसार में नारायण चंद पराशर के योगदान को कोई कैसे भूल सकता है।

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'बात फरवरी, 1971 की है। मैं एसडीएम ऊना था। लोकसभा चुनाव का वातावरण था। तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार तलवाड़ा वाले क्षेत्र से हिमाचल प्रदेश में पंजाब से प्रवेश कर रहे थे। मैं सीमा पर पहुंच गया था। जैसे ही मुझे देखा, बोले, -आइए एसडीएम साहब...! चुनाव चल रहे हैं....आपको नहीं आना चाहिए था। आप जाएं और आराम करें। रात हो ही गई है।' मैंने जवाब दिया, 'सर...जानता हूं चुनाव हैं लेकिन मैं चुनाव की दृष्टि से नहीं, आपके सुरक्षा प्रबंधों को देखने आया हूं।' बदले में जोर से हंसे...और जवाब मिला, 'यहां मुझे कोई खतरा नहीं। मैं सुरक्षित हूं। आप कृपया जाएं।'

...यह किस्सा सुनाते हुए सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी, पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त और लेखक केसी शर्मा यह बात भी कहते हैं, ' देखिए... तब तक आदर्श आचार संहिता का दूर-दूर तक कोई नाम नहीं था लेकिन डॉ. परमार स्वयं की आचार संहिता के अग्रदूत थे, इसलिए मुझे ऐसा कह सके।' डॉ. परमार को सब हिमाचल निर्माता के रूप में जानते हैं। उनकी एक खूबी यह भी थी कि लेखन का बहुत शौक था उन्हें। सुशिक्षित थे। उन्होंने पीएचडी की थी, 'पॉलिएंडरी इन हिमालयाज' पर एक पुस्तक भी आई थी उनकी। डॉ. परमार ही नहीं, हिमाचल प्रदेश की राजनीति का जुड़ाव ऐसे कई नेताओं से रहा है जो भाषा, साहित्य और सृजन के पैरोकार रहे हैं। कुछ तो बाकायदा साहित्यकार भी रहे। गौरतलब यह भी है कला, साहित्य, सृजन या लेखन से जुड़े लोग ही तत्काल फैसला लेने की क्षमता भी रखते रहे।  केसी शर्मा याद करते हैं, ' एक बार डॉ. परमार का भाषण था। लोगों ने जिद की कि आज जिले की घोषणा कर के जाएं। उन्होंने कहा कि घोषणा तो नहीं हो सकती लेकिन आज से ही एसडीएम को अतिरिक्त उपायुक्त और दंडाधिकारी की शक्तियां दे दी जाएंगी। शाम होने से पहले मुख्य सचिव का आदेश आ चुका था।

इसी प्रकार उर्दू गजलों से महफिलों में जान भरने वाले तत्कालीन वन एवं आयुर्वेद मंत्री लाल चंद प्रार्थी चंद कुल्लवी थे। वह पहाड़ी में भी लिखते रहे और ङ्क्षहदी, उर्दू में भी। केसी शर्मा याद करते हैं, 'एक बार नगरोटा बगवां में उनका संबोधन था। मैं एसडीएम कांगड़ा भी था। उन्होंने सारा भाषण शुद्ध उर्दू में दिया। क्योंकि मुझे धन्यवाद ज्ञापित करना था, मैंने भी सारा भाषण उर्दू में दिया। उसके बाद उन्होंने मुझे आजीवन याद रखा। फिर तो नाम से बुलाते थे और उर्दू का जिक्र भी करते थे। उनके बहुभाषी होने का आलम यह था कि जिस क्षेत्र में जाते, वहीं की भाषा को छू लेते। पहाड़ी पर भी उनकी पकड़ गजब की रही।

ऐसे ही एक राजनेता रहे, प्रोफेसर नारायण चंद पराशर। उनका आग्रह पहाड़ी भाषा के प्रति बहुत रहा। क्योंकि पहाड़ी के साथ उस समय समस्या यह थी कि कौन सी पहाड़ी। यानी हर जिले में ही कई कई बोलियां थी। उन्होंने इस एक रूप देने के लिए बेहद जोर लगाया और इस समस्या के निराकरण के प्रति आग्रही रहे। यहां तक कि दी या दा के स्थान पर री या रा का इस्तेमाल शुरू किया। पहाड़ी में इसका अर्थ की या का है। लंबे अर्से तक अपना डंका बजवाने वाली पत्रिका 'हिमधारा के पीछे नारायण चंद पराशर ही ताकत थे। वह सांसद भी रहे और प्रदेश में शिक्षा मंत्री भी।

जब किसी साहित्यकार राजनेता का जिक्र आता है तो सबसे पहले शांता कुमार इसलिए आते हैं क्योंकि उनकी स्वयं की कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और कई साहित्यकारों ने उन पर भी पुस्तकें लिखी हैं। करीब 22 पुस्तकें शांता कुमार और उनकी पत्नी की हैं। इनमें से 15 शांता कुमार की ही हैं। सत्तर के बाद के वर्षों में उनकी दोस्ती धर्मवीर भारती से भी हुई। चीन के युद्ध की पृष्ठभूमि पर उनकी किताब 'हिमालय पर लाल छाया' के अलावा राजनीति और समाज पर गद्य और कविताओं की लंबी फेहरिस्त है। भाषा के प्रति आग्रही शांता कुमार ही रातोंरात ङ्क्षहदी को आधिकारिक भाषा बनाने का आदेश देने वाले मुख्यमंत्री भी बने।


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