विधानसभा में विपक्ष का रवैया उठा रहा सवाल, सत्ता पक्ष को जनहित में सख्त कदम उठाने की जरूरत
Khabar Ke Paar विधानसभा में विपक्ष का रवैया सवाल उठा रहा है सत्ता पक्ष को भी जनहित में सख्त कदम उठाने की जरूरत है।
धर्मशाला, जेएनएन। इस समय जब कोरोना महामारी फिर से सिर उठा रही है, कुछ सबक सार्वजनिक हुए हैं। पहला सबक यह कि कोरोना किसी भी विचारधारा के व्यक्ति को हो सकता है। मजदूर से लेकर अधिकारी तक और संतरी से मंत्री तक किसी को भी अपनी चपेट में ले सकता है। दूसरा सबक यह कि जो शरीर स्वस्थ हैं, जिनमें दिल, गुर्दे और फेफड़े आदि सुरक्षित हैं, उनके साथ भिड़ने की कोरोना के पास हिम्मत नहीं है। यह सब देखते हुए लोकतंत्र जैसी व्यवस्था की प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखना भी अनिवार्य प्रतीत होता है, अन्यथा अवसरवादिता, अकारण हंगामा जैसी दुष्वृत्तियां उसे भीड़तंत्र में बदल सकती हैं।
बीते कुछ दिनों से हिमाचल प्रदेश का सामाजिक, सांस्कृतिक मंजर बेशक कंगना रनोत के कारण चर्चा में रहा है, लेकिन उससे भी आगे देखें तो राजनीतिक मंजर भी देखने योग्य है। इसका माध्यम है विधानसभा का मानसून सत्र। यह ऐसा सत्र है जिसकी शुरुआत से ठीक पहले मंत्री महेंद्र सिंह कोरोना संक्रमित हो गए। नौकरशाही में मुख्य सचिव के बाद के दोनों अतिरिक्त मुख्य सचिव और कई अफसर कोरोना संक्रमित हो गए। आनन फानन उनके दायित्व अन्य अफसरों को सौंपे गए। सत्र के पहले दिन सदन में मौजूद रहीं एक महिला विधायक भी शाम तक कोरोना संक्रमित हो गईं।
बहरहाल, सात सितंबर से शुरू हुआ सत्र 18 सितंबर तक जारी रहेगा। आमतौर पर ऐसे सत्रों की पटकथा पहले से लिखी हुई होती है। जैसे सरकार अपनी पीठ थपथपाएगी, विपक्ष कोई मांग करेगा, उसे मंजूरी नहीं मिलेगी और फिर लोकतंत्र को खतरे में बताते हुए विपक्ष बहिर्गमन करेगा आदि। इस बार पटकथा में कुछ बदलाव हुआ, जिसकी उम्मीद विपक्ष को भी नहीं थी। पहले ही दिन नियम-67 के तहत विपक्ष काम रोको प्रस्ताव ले आया। कहा गया कि कोरोना पर चर्चा अनिवार्य समझी जा रही है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा में इतिहास यह बना कि अध्यक्ष ने उसे स्वीकृति दे दी।
पूरे ढाई दिन इस पर चर्चा हुई, लेकिन विपक्ष एक तरफ इसे अपनी जीत बताता रहा और दूसरी तरफ बहिर्गमन की परंपरा को भी नहीं तोड़ पाया। प्रस्ताव मंजूर हो चुका था, चूंकि वह बहिर्गमन का कारण नहीं हो सकता था, तो तर्क यह दिया गया कि विपक्ष के विधायकों को बोलने नहीं दिया गया। मुख्यमंत्री का कहना था कि अगर विपक्ष के कुछ विधायक नहीं बोल पाए तो इसमें किसी का क्या दोष है। उनके नेता ने जो सूची दी, उन सबको अवसर दिया गया है। सवाल यह है कि जितने दिन कोरोना पर चर्चा हुई, उतने दिन तो कई राज्यों में सत्र ही नहीं हुआ, फिर ऐसा कौन सा असंतोष है जो बहिर्गमन से संतुष्टि में बदलता है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और वन मंत्री राकेश पठानिया ने जिस प्रकार विपक्ष पर हमला बोला, उससे विपक्ष के ही कमजोर पक्ष दिखे हैं। कोरोना पर कुल 28 विधायकों ने चर्चा में हिस्सा लिया। इनमें 13 प्रतिपक्ष के थे। मुख्यमंत्री के भाषण के दौरान भी विपक्ष ने शोर जारी रखते हुए लोकतंत्र को नई परिभाषा दे दी।
यह तो अंदर का हाल था। जिस कोरोना पर विपक्ष अंदर चर्चा मांग रहा था, उसी के आधारभूत नियमों की धज्जियां कांग्रेस ने बाहर उड़ाईं। तमाम बाधाओं को तोड़ते हुए, शारीरिक दूरी के मानकों को ध्वस्त करते हुए कोरोना के प्रति चिंता को नारों में उड़ा दिया। कोरोना से सावधानी के मानकों की धज्जियां उड़ाना और एंबुलेंस को रोकना कब से प्रतिपक्ष के सरोकारों में शामिल हो गया? कोरोना क्या है, यह कैसे होता है, के बारे में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस की जो समझ है, उसे अद्यतन करने की आवश्यकता है। विशेष रूप से प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर को यह पता होना चाहिए कि आदमी अपनी मर्जी से, जब चाहे, तब पॉजिटिव या नेगेटिव नहीं हो सकता। महेंद्र सिंह विपक्ष के सवालों से बचने के लिए कोरोना पॉजिटिव हुए हों, आपकी अपनी ही पार्टी के लोग आपकी इस बात से सहमत नहीं होंगे।
किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में व्यवस्था से असंतुष्ट पक्षों का सहारा हमेशा विपक्ष होता है। हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस को यह ध्यान रखना बेहद आवश्यक है कि वह अप्रासंगिक होने से बचे। सदन के बाहर उसे अपने बारे में अधिक सोचने की जरूरत है। इधर सत्ता पक्ष के लोग भी यह कहना छोड़ें कि हमें विपक्ष के बारे में सब पता है, मुंह न खुलवाएं। लोग इधर के हों या उधर के, अगर कुछ पता है और जनहित में है तो उसे सामने लाने और कदम उठाने में गुरेज क्यों?