खबर के पार: दो भागों में विभाजित दिखता है हिमाचल का समाज, आओ देखें हम कि जिंदा कौन है
हिमाचली समाज मुख्यत दो भागों में विभाजित हो गया है। एक वे जो जिंदा रहते ही नहीं जिंदा नजर भी आते हैं। दूसरे वे जो जिंदा होते हुए भी अपने भीतर का बहुत कुछ मार चुके हैं।
धर्मशाला, नवनीत शर्मा। इस समय जब हिमाचल प्रदेश की वार्षिक योजना ने 7900 करोड़ रुपये का आकार ले लिया है...जब विधायकगण अपनी प्राथमिकताओं पर मुख्यमंत्री के साथ लगातार बातचीत कर रहे हैं...जब सड़कें, स्वास्थ्य केंद्र और कॉलेज अब भी मांगे जा रहे हैं...प्रदेश की कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो ध्यान आकर्षित करती हैं। उनसे लगता है कि हिमाचली समाज मुख्यत: दो भागों में विभाजित हो गया है। एक वे जो जिंदा रहते ही नहीं, जिंदा नजर भी आते हैं। दूसरे वे जो जिंदा होते हुए भी अपने भीतर का बहुत कुछ मार चुके हैं।
प्रदेश में बहुचर्चित छात्रवृत्ति घोटाले में महत्वपूर्ण मोड़ लाते हुए केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया है। एक बैंक का कैशियर है, एक निजी संस्थान का अहम आदमी है जबकि एक शिक्षा विभाग का रणनीतिक सीट पर बैठा कर्मचारी। यह मौका है इस घोटाले को सामने लाने वाले तत्कालीन शिक्षा सचिव डॉ. अरुण शर्मा को याद करने का। तमाम दबावों के बावजूद उन्होंने जांच की जिद की और आज कुछ स्वनामधन्य लोग जांच की जद में हैं। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज ने अरुण शर्मा का साथ दिया।
राजीव सहजल और रामलाल मार्कंडेय जैसे मंत्रियों ने भी सवाल किए थे कि आखिर पैसा गया कहां। अब सूचनाएं ये भी निकली कि एक आरोपित को उसकी सीट से न हटाने के लिए कांग्रेस और भाजपा के लोगों के फोन आते थे। बात इन तीनों व्यक्तियों की नहीं है, इनके साथ जो लोग जुड़े थे, उन तक पहुंचने की है। चेहरों को याद न करें, बस पक्ष और प्रतिपक्ष के वे हाथ याद करें जो विधानसभा के अंदर और बाहर 'जनहित' में लहराए जाते हैं।
यह संकेत है कि एक व्यक्ति कुछ नहीं होता, उसके पीछे जो होते हैं, उन्हें भी सीबीआइ को सामने लाना चाहिए। कोई तो वजह थी कि जांच राज्य सीआइडी को देने का इसरार भी रहा। इन सवालों के जवाब तो अभी आने हैं कि तब के वित्त सचिव क्यों खामोश थे? कैग क्यों चुप था? उपयोगिता प्रमाणपत्र क्यों नहीं मांगे गए? केंद्र से पैसा क्यों जारी होता रहा? वनरक्षक होशियार सिंह और कोटखाई के छात्रा हत्या व दुष्कर्म मामले के बाद सीबीआइ के पास यह अवसर है कि वह गरीब और पात्र विद्यार्थियों का हिस्सा खाने वाले एक-एक व्यक्ति का चेहरा बेनकाब करे। याद रहे, सरकारी स्कूलों में जो नन्हे फूल पलते हैं, उनमें से कई ऐसे होते हैं, जिनके जूतों में बड़े सुराख होते हैं, स्वेटरों के छेद से ठंड उन्हें तीर की तरह चीरती निकल जाती है। उनका हिस्सा उन तक पहुंचाना छोटा काम नहीं है।
एक सूचना यह रही कि पुलिस भर्ती घोटाले का मुख्य आरोपित पकड़े जाने के डर से एक माह तक पशुशाला में छिपा रहा। इस तरह पशुवत एक माह गुजारने से बेहतर था कि इसने छिपने के बजाय पशुशाला को पहले ही अपना कार्यक्षेत्र बना लिया होता। फिर इसे गिरोह बनाने की नौबत क्यों आती। क्या जरूरी था कि यह सॉल्वर यानी पर्चों को हल करने वाले लोगों का इंतजाम करता? दूसरे प्रदेशों तक अपने 'व्यवसाय' का विस्तार करता? इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का जुगाड़ कर पात्रों के साथ अन्याय करने की जरूरत ही नहीं थी। एक माह पशुशाला में काटने के बाद अब वह पुलिस रिमांड पर है। उम्मीद है कि इसका भी पूरा सच आएगा। छात्रवृत्ति घोटाले में जो लोग शामिल रहे होंगे और पुलिस भर्ती घोटाले में भी जिनकी संलिप्तता पर साबित होगी, उनकी मानसिकता एक जैसी ही है। अन्यायपूर्ण, अनैतिक, क्रूर और आपराधिक।
इसी समाज में एक स्नेहलता उठती है। राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र से डिप्लोमा करती है और पुरुषों के समझे जाते काम में हाथ डाल देती है। समाजसेवी संजय शर्मा उसे बेटी बनाते हैं और दुनिया के सामने लाते हैं। यह खाए, पिए और अघाए हुए उस किसी भी सरकारी बाबू से कहीं बेहतर है जो छात्रवृत्तियों को खुर्दबुर्द करने अथवा गलत हाथों में सौंपने का आरोपित हो। जिन्हें संघर्ष और समर्पण, सच और मिथ्या में अंतर करना आता है, वे जिंदा ही होते हैं। जिंदगी की बिगड़ी हुई गाड़ी के पेच कसने के लिए उसने पेचकस का सहारा अवश्य लिया लेकिन ताकत जज्बे की है।
ऐसा बहुत कुछ अच्छा हो भी रहा है लेकिन निकट दृष्टिदोष जब हावी हो जाता है तो कुछ नहीं दिखता। जिंदादिली की एक मिसाल हाल में सांस्कृतिक नगरी मंडी में दिखी। अच्छे सरकारी पदों से सेवानिवृत्त होकर कुछ लोगों ने ओल्ड ब्वॉयज बैंड बनाया। यू ट््यूब पर एक लाख से अधिक लोग उन्हें फॉलो करते हैं। बोली, संस्कृति और संगीत का संरक्षण कर रहे हैं ये लोग। यह भी जिंदा रहने की मिसाल है। किसी की स्टेंटिंग हुई है, कोई बाइपास करवा कर आया है, लेकिन गाते हुए इनका जज्बा देखने वाला होता है।
जिंदा लोग वही होते हैं, जो परीक्षा की घड़ी में भी बने रहें। आसमान पर नजरें रहें लेकिन जमीन के कांटे कम करें। मुर्दा होकर खुद कांटे बन जाना तो बहुत आसान होता है... रिश्वत लेते हुए ..छात्रवृत्ति का सौदा करते हुए...पुलिस भर्ती की लिखित परीक्षा में गोलमाल करते हुए...एटीएम तोड़ते हुए... चिट्टा आगे से आगे पहुंचाते हुए...। तुफैल चतुर्वेदी के यहां जिंदा लोगों की परिभाषा यह है :
मुश्किलों में ही मुस्कराए हम
धूप पडऩे से लहलहाए हम
चुन रहे हैं जमीन से कांटे
आसमां पर नजर जमाए हम।