खबर के पार: हंगामा है क्यों बरपा, नाटी ही तो की है; पढ़ें पूरा लेख
khabar ke paar बीते दिनों विधानसभा के शीतकालीन सत्र के लिए धर्मशाला पहुंचे पक्ष-प्रतिपक्ष का एक भोज मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी की याद दिला गया।
धर्मशाला, नवनीत शर्मा। बीते दिनों विधानसभा के शीतकालीन सत्र के लिए धर्मशाला पहुंचे पक्ष-प्रतिपक्ष का एक भोज मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी की याद दिला गया। उनकी इस गजल को हर कोई पसंद करता है। गुलाम अली के माध्यम से यह जन-जन में पहुंची थी। गजल का मत्ला या पहला शे'र यूं है... 'हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है/डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है।' छह दिवसीय सत्र के बीच ही एक शाम का चयन रात्रिभोज के लिए किया गया। रात्रिभोज का न्योता मुख्यमंत्री की ओर से था। सत्ता पक्ष के अलावा विपक्ष के विधायक, अफसर और पत्रकारों को भी बुलाया गया था। मुख्यमंत्री मेजबान के नाते हर मेज पर गए, लोगों से मिले।
कुछ चुनिंदा बड़े अफसरों के चेहरे से नाराजगी टपक रही थी, कुछ विधायकों के चेहरे खिले हुए थे और कुछ 'रडार' पर चल रहे मंत्री खुश दिखने का पूरा उपक्रम कर रहे थे। मंच भी बना था जहां संगीत से जुड़े लोग गा रहे थे। पुलिस का एक बांसुरीवादक सधी हुई धुनें बजा रहा था। लोक संपर्क विभाग के लोगों ने भी गाया। फिर नाटी यानी हिमाचल के सामूहिक परंपरागत नृत्य की बारी आई। वातावरण नाचने का बन गया। इस बीच मुख्यमंत्री भी नाचे लेकिन सोशल मीडिया पर यह बहस शुरू हो गई कि यह जश्न आखिर किसलिए? अगले दिन मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि वह इस प्रकार के आरोपों से आहत हैं। वह चाहते तो बात को आई-गई समझ कर टाल देते लेकिन उन्होंने इसे महसूस किया और सदन में सफाई दी जबकि उसकी जरूरत नहीं थी। क्योंकि उनका मानना था मंशा यही थी कि सब इक्ट्ठे हों।
लेकिन इस पर बवाल किया जा चुका था। तिल के इस ताड़ में या राई के इस पहाड़ में असल मुद्दे गुम हो गए। इसे कहते हैं मुद्दाविहीनता के आलम से मुद्दा तलाशना। इस क्रिया के तहत वास्तविक मुद्दे नेपथ्य की ओर धकेल दिए जाते हैं। एक चित्र अक्सर ध्यान आकृष्ट करता है...जिसमें प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार, दूसरे मुख्यमंत्री ठाकुर राम लाल और एक अन्य मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह नाटी कर रहे हैं। कुछ चित्रों में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी नाटी करते हुए दिखते हैं।
साफ है कि उन कार्यक्रमों में अगर तब के प्रतिपक्ष के लोग होते, तो उन्हें भी नाचने से परहेज न होता। लेकिन ये कोई मुद्दे नहीं थे। अब यह भी मुद्दा है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, कांग्रेस के कुछ लोग और इकलौते वामपंथी विधायक राकेश सिंघा क्यों नाचे। सवाल यह भी कि स्कूलों से शॉल टोपी कल्चर खत्म करने वाले सुरेश भारद्वाज भी क्यों नाचे? क्या राजनीतिज्ञों का नाचना गुनाह है?
अगर पक्ष और प्रतिपक्ष सदन में तल्ख तेवरों में बात करते हैं तो इसका अर्थ क्या यह है कि वे बाहर भी तलवारें लेकर एक दूसरे पर टूट पड़ें? नाटी अगर संस्कृति का हिस्सा है, खिन्नू वाला गीत अगर संस्कृति का हिस्सा है तो क्या उन पर नाचने वाले राजनीतिज्ञ 'विदेशी तत्व' हैं? क्या उन्हें हक नहीं नाचने का? वे इन्सान नहीं? सरकार के करीब हर व्यक्ति की इच्छाएं होती हैं अपेक्षाएं होती हैं। यह अलग बात है कि कभी इधर, कभी उधर दौड़ाए जाने वाले 'खिन्नू' यानी गेंद वाले गीत पर रमेश धवाला जम कर नाचे। हंगामा बरप गया, यह और बात है जबकि थोड़ी सी नाटी ही तो की थी।
त्रासदी यह है कि सवाल उठाने वाले वहां खामोश हो जाते हैं जहां चोरी या डाके की बात आती है। धर्मशाला में विधानसभा सत्र के नाम पर कितनी गाडिय़ां किसकी मर्जी या हेकड़ी से चलती हैं, क्या उस फिजूलखर्ची में केवल पक्ष और प्रतिपक्ष या अधिकारी ही शामिल हैं? कितने बैरियरों पर आज भी हफ्ता मांगा जाता है, क्या वह चोरी नहीं है? कितने अस्पताल सिर्फ रेफरल यूनिट बन गए हैं, उस पर बात क्यों नहीं? आयुर्वेदिक घोटाला कितने दिनों के बाद जांच को निर्णायक मोड़ पर देखेगा? कितने सामान्य प्रसव के मामलों को गंभीर बता कर टांडा या आइजीएमसी भेज दिया जाता है, यह मुद्दा क्यों नहीं?
बड़े-बड़े पीएचडीधारको, इंजीनियरों, एमफिल किस्म के लोगों से पटवारी की परीक्षा भी उत्तीर्ण नहीं हुई, क्या यह मुद्दा नहीं है? भर्ती में युवाओं का दम फूल रहा है, क्या यह मुद्दा नहीं है? चिट्टा कितने भविष्य काले कर रहा है, इस पर बात कौन करेगा? मानव संसाधन की कमी से जूझ रहे प्रदेश के ऊर्जा विभाग को और हाथ चाहिएं, क्या यह मुद्दा नहीं है? सवाल यह भी एक दिन के रात्रिभोज के न करने से क्या प्रदेश कर्ज के जाल मुक्त हो जाएगा? कैग की रपट के सवाल मुद्दा होने चाहिए न कि नाचना-गाना।
कुछ बातों का ध्यान सरकार को भी रखना चाहिए था। एक तो इस भोज का समय बदला जा सकता था। छह दिवसीय सत्र में जब रोज वाकआउट धारावाहिक प्रसारित हो रहा था, शाम को इस प्रकार के मंजर को दुनिया स्वाभाविक रूप से अजूबे के तौर पर ही देखती। यह परंपरा से हटकर था लेकिन नई परंपरा के लिए भी माकूल वक्त हो तो परिणाम अच्छे आते हैं। दूसरा, जहां यह मुद्दा हो जाए कि मेरे निमंत्रण पत्र पर मुख्यमंत्री का नहीं, किसी और का नाम है, वहां परिपक्वता की उम्मीद किससे करें? जहां तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से अधिक सफेद कैसे की तर्ज पर यह देखा जा रहा हो कि कौन किसी मेज पर बैठा, वहां किससे कहें कि यह मुद्दा कोई मुद्दा नहीं है। लोकतंत्र में लोक समेत जितने स्तंभ हैं, वे मुद्दों के करीब रहें तो यह ठीक जी लेगा।