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खबर के पार: दिल्ली चुनाव से सीख सकता है हिमाचल, प्रदेश के लिए क्‍या है सबक; जानिए इस लेख में

दिल्ली के चुनाव परिणाम खबर हैं तो उसके पार यह सवाल है कि हिमाचल के लिए क्या सबक हैं? सवाल इसलिए है क्योंकि हिमाचल प्रदेश से भी दोनों बड़े दलों के कई कद्दावर नेता प्रचार में डटे रहे

By Rajesh SharmaEdited By: Published: Thu, 13 Feb 2020 10:44 AM (IST)Updated: Thu, 13 Feb 2020 10:44 AM (IST)
खबर के पार: दिल्ली चुनाव से सीख सकता है हिमाचल, प्रदेश के लिए क्‍या है सबक; जानिए इस लेख में
खबर के पार: दिल्ली चुनाव से सीख सकता है हिमाचल, प्रदेश के लिए क्‍या है सबक; जानिए इस लेख में

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम पर सबकी नजर थी। देश के दिल पर किसी की नजर क्यों नहीं होगी। खास तौर पर तब जब दिल्ली के साथ ही उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान सटे हों... उत्तर पूर्व भी हो... दक्षिण भारत भी हो, मध्य भारत भी हो और पश्चिम भारत भी हो। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के लिए भी दिल्ली दूर नहीं है। छह लाख के करीब हिमाचली देश की राजधानी में बसते हैं। इन सबके हिमाचली दालान-दहलीज दिल्ली में कमाए पैसों से ही रोशन होते हैं। इसलिए दिल्ली का चुनाव राजनीतिक पक्ष के अलावा भी इस पहाड़ी राज्य के लिए खास था।

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दिल्ली के चुनाव परिणाम खबर हैं तो उसके पार यह सवाल है कि हिमाचल के लिए क्या सबक हैं? सवाल इसलिए है क्योंकि हिमाचल प्रदेश से भी दोनों बड़े दलों के कई कद्दावर नेता प्रचार में डटे रहे। सबक राज्य के लिए है, कांग्रेस के लिए है और भाजपा के लिए है।

पहले कांग्रेस की बात। कांग्रेस के जो चेहरे दिल्ली गए थे वे तो वापसी पर अपने लिए प्रशस्ति पत्र भी लाए हैं। कांग्रेस को पहले की तरह एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन दिल्ली कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सुभाष चोपड़ा का सोनिया गांधी को हिमाचल कांग्रेस के नेताओं की तारीफ में लिखा गया पत्र उनके लिए सनद हो गया है। पत्र के अनुसार, रामलाल ठाकुर और उनके साथ टीम ने बहुत मेहनत के साथ काम किया है। यानी सिफारिश है कि आगे संगठन और चुनाव में इन लोगों को 'विशेष महत्व' दिया जाए।

यह पत्र दिल्ली प्रदेशाध्यक्ष के हाथों स्वत:स्फूर्त ही कागज पर उतरा है अथवा एक रसीद के रूप में इसकी जरूरत महसूस की गई, यह कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर और हिमाचल में दिनरात की बानगी है। जब इतने चेहरे हैं और जनता तक कोई नहीं पहुंच रहा, ऐसे में ये चिट्ठियां बहुत कुछ कहती हैं। प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह तो तब राठौर हों जब उन्हें राहुल में गांधी करिश्मे का ठौर मिले। सब नदारद है। कांग्रेस को यह सीखना है कि जिस लोकतंत्र की वह दुहाई देती है, पहले उसी नाराज लोकतंत्र को समझा बुझा कर पार्टी में लाया जाए। अकेले मुकेश अग्निहोत्री क्या कर लेंगे। हिमाचल प्रदेश की चार पांच कांग्रेस को इक्‍ट्ठे होना होगा। प्रदेशाध्यक्ष जी को चाहिए कि कांग्रेस के टुकड़े वक्त रहते चुन लें। कब तक दिल्ली और अन्य स्थानों पर भाजपा की हार में प्रसन्नता को तलाशेंगे? 

भाजपा की बात यह है कि मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ प्रदेश संगठन के मोअतबर चेहरों ने दिल्ली कूच किया था। संगठन के ही कई लोग थे। भाजपा को हिमाचल प्रदेश के लिए यह सीखना है कि सरकार और संगठन को जनता के बीच रहना होगा, उसे समझना होगा। बड़े नेता कार्यकर्ताओं की शक्लें देखने के बजाय उनका काम देखें। एक जनमंच ऐसा भी आना चाहिए जिसमें शिकायत न के बराबर हो। 

पूरे प्रदेश और सियासी परिदृश्य के लिए यह सोचना भी बनता है कि दिल्ली की जनता पर मुफ्तखोरी का आरोप जनादेश और दिल्ली की जनता का अपमान तो नहीं? कर देने वाली जनता को कुछ मिल रहा है तो वह मुफ्तखोरी कैसे हो सकती है। और अगर यह मुफ्तखोरी है तो किसानों की कर्जमाफी, स्कूटी, लैपटॉप, स्कूल वर्दी, स्कूलबैग आदि क्या है? फिर माननीयों को मिलने वाले सस्ता कर्ज भी विषय हो, फिर इनके आयकर को आम जनता क्यों अपनी पीठ पर लाद कर चलती रहे?

बात सुशासन की भी है। अच्छा लगता है जब हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री सेवा संकल्प हेल्पलाइन योजना में कोताही बरतने वाले अफसरों को निलंबित किया जाता है लेकिन केवल दो विषयों को देख लें। शिक्षा और स्वास्थ्य। हिमाचल प्रदेश में चिकित्सा संस्थानों की कमी नहीं है लेकिन सुविधाएं जरूरी हैं। आपात स्थिति में क्यों अब भी दिल्ली, चंडीगढ़, लुधियाना या जालंधर ही आशा की किरण हों? निजी स्कूलों की मनमानी पर नकेल क्यों न कसी जाए? शुल्क का नियमन क्यों न हो? सड़कों पर ध्यान देने की जरूरत और है। संख्या के बजाय गुणवत्ता समय की जरूरत है। मोहल्ला क्लीनिक ऑपरेशन नहीं करता, जादू की झप्पी तो देता ही है। हिमाचल में बनने वाला सीमेंट मुफ्त में नहीं पर अन्य प्रदेशों से सस्ता तो दिया ही जा सकता है।

सीखना होगा कि जनता को मौका मिले तो वह पहाड़ पर तीसरे पक्ष को भी मौका दे सकती है। अगर ताजातरीन चेहरे हों, उनके पास जनता के लिए दृष्टि हो तो पहाड़ पर भी पांच-पांच साल की बारी का क्रम टूट सकता है। तीसरे विकल्प के प्रयोग और सहयोग से ही हिमाचल में भाजपानीत पहली ऐसी सरकार का रास्ता खुला था जिसने पांच वर्ष पूरे किए थे। लेकिन वे विकल्प मुख्य दलों के उन नेताओं ने दिए जो इन दलों में हाशिए पर थे। स्वयं आम आदमी पार्टी हिमाचल में इसलिए नहीं बढ़ पाई, क्योंकि राजन सुशांत को चेहरा बनाया जो भाजपा से नाराज थे। साफ है कि ताजा चेहरे खड़े हों तो वे कुछ कर सकते हैं। दिल्ली ने यह भी बताया है कि गोली या डंडे की भाषा नहीं, तमीज ही काम आती है जो प्रधानमंत्री के लिए केजरीवाल कुछ साल से सोच समझ कर बरत रहे थे।


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