Move to Jagran APP

राष्ट्रपति के दौरे में कांगड़ा कलम

हिमाचल को एक ब्रांड के रूप में विकसित करने की सलाह कुछ वर्ष पूर्व तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने दी थी।

By Munish DixitEdited By: Published: Thu, 01 Nov 2018 11:36 AM (IST)Updated: Thu, 01 Nov 2018 11:36 AM (IST)
राष्ट्रपति के दौरे में कांगड़ा कलम
राष्ट्रपति के दौरे में कांगड़ा कलम

नवनीत शर्मा। कांगड़ा के सिकुड़े हुए हवाई अड्डे पर कांगड़ा कलम चित्रकला प्रदर्शनी जारी थी.. राष्ट्रपति के दौरे के सिलसिले में राज्यपाल आचार्य देवव्रत और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी जायजा ले रहे थे। दोनों प्रदर्शनी तक पहुंच गए। पद्मश्री विजय शर्मा उन्हें चित्रकला के बारे में बताने लगे। राज्यपाल के मुंह से निकला, ‘अरे..यह तो मैं कभी देख ही नहीं पाया।’ मुख्यमंत्री ने भी विस्तार से जानकारी ली और दिलचस्पी दिखाई, वहां समय बिताया। इसके बारे में जाना। यह अलग बात है कि कांगड़ा से ताल्लुक रखने वाले मंत्री निरपेक्ष भाव से खड़े रहे। यह निरपेक्षता साबित भी होती आई है।

loksabha election banner

राष्ट्रपति बेशक प्रदर्शनी तक नहीं आ सके लेकिन संतोष यह रहा कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद राजकीय मेडिकल टांडा के दीक्षा समारोह में राष्ट्रपति को आदि हिमानी चामुंडा मंदिर प्रतिरूप के साथ कांगड़ा कलम का चित्र भेंट किया गया। कुछ दिन पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा भी इजरायल के एक कार्यक्रम में चंबा रूमाल देख कर ठिठके थे। उससे पूर्व पालमपुर की चाय और चंबा रूमाल आदि प्रधानमंत्री ने कई देशों में भेंट किए।

व्यक्ति हो, प्रदेश हो या देश हो.. दूसरे इन्हें वैसे ही देखते हैं जैसे ये स्वयं को दिखाना चाहते हैं। हिमाचल को एक ब्रांड के रूप में विकसित करने की सलाह कुछ वर्ष पूर्व तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने दी थी। समय आ गया है कि बाघों के साथ-साथ कांगड़ा कला के चितेरों को भी विलुप्त होने से बचाया जाए। भाषा, संस्कृति और कला..इन तीन के सरकारी खाके में कहीं तो कांगड़ा कलम या पहाड़ी चित्रकला आती होगी। जब तक हिमाचल को इस पर गर्व नहीं होगा, तब तक दूसरे क्यों हिमाचल पर गर्व करें?

कांगड़ा कला की शुरूआत गुलेर से हुई थी जहां कश्मीरी चितेरे पंडित सेऊ ने गुलेर राजदरबार में रहना तय किया। एक अकेला राजा और उसकी दृष्टि। विभाग या अकादमी नहीं यानी लालफीताशाही नहीं। सेऊ के दो बेटे नैनसुख और माणकू हुए जो कालांतर में इधर उधर हो गए। आज नैनसुख का चित्र लंदन में पांच करोड़ रुपये में नीलाम होता है और गुलेर या कांगड़ा में इस महान दृश्य कला के बारे में कुछ नहीं है। कांगड़ा कलम की परवान एक बार फिर चढ़ी जब महाराजा संसार चंद जैसे कला प्रेमी शासक ने उदारता से चित्रकारों को राजाश्रय दिया। इस प्रकार भारतीय संगीत के घरानों की तरह कांगड़ा चित्रकला का घराना भी कला जगत में ऊंची उड़ान भर सका।

भारत विभाजन के बाद लाहौर म्यूजियम का चित्रसंग्रह का एक बड़ा हिस्सा भारत के पंजाब के हिस्से में आया। उस समय शिमला पंजाब का ही हिस्सा था। डॉक्टर एमएस रंधावा लाहौर म्यूजियम से कांगड़ा चित्रों का महत्वपूर्ण संग्रह लाहौर से शिमला ले आए। संयोग से पंजाब में उस समय कोई संग्रहालय नहीं था। हिमाचल में इकलौता भूरि सिंह संग्रहालय ही था। लेकिन रंधावा का पंजाब प्रेम इस बेशकीमती संग्रह को शिमला से पटियाला ले आया। अंतत हजारों चित्रों का यह महत्वपूर्ण संग्रह चंडीगढ़ के संग्रहालय में स्थान पा सका। इस बारे में रंधावा ने लंदन के क्यूरेटर को पत्र लिख कर सूचित किया कि मैं बड़े आसानी से यह खजाना हिमाचल से पंजाब ले आया हूं, हिमाचल के किसी राजनीतिज्ञ ने कोई एतराज नहीं जताया। कालांतर में विजय शर्मा ने इस कला को परवान चढ़ाया।

आज की स्थितियां क्या हैं? 1990 में बना कांगड़ा संग्रहालय अब भी शैशवकाल में है। पर्यटकों के लिए कुछ नहीं। तीस रुपये का टिकट रखा गया है। भला हो कांगड़ा में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके आइएएस अधिकारी बीके अग्रवाल (इन दिनों मुख्य सचिव) का जिन्होंने एक कांगड़ा आर्ट्स प्रोमोशन सोसायटी बनाई। फिर अगली पौध में मुकेश कुमार, धनी राम खुशदिल और दीपक भंडारी जैसे लोग आए। गुरु शिष्य परंपरा जीवंत हुई। एक आजाद विधायक होशियार सिंह इस परंपरा के लिए संजीदा हैं मगर उनकी राह भी आसान नहीं।

एक और उत्साही अधिकारी राकेश कंवर जब भाषा एवं संस्कृति विभाग के निदेशक बने तो उन्होंने विजय शर्मा को कांगड़ा संग्रहालय को समृद्ध करने का दायित्व सौंपा। कुछ ही दिन हुए थे कि एक और निदेशक आए जिन्होंने सबसे पहले ओएसडी का पद खत्म किया। जाहिर है यह इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए आघात ही था। उनके शिष्यों का आलम यह है कि वे मंदिरों में कभी लिपिक का काम करते हैं और कभी चढ़ावे की गिनती करते हैं। इनका अपना काम गौण हो गया। इनके ये नसीब किसकी सलाह पर लिखे गए, यह वर्तमान निदेशक और सरकार के लिए जांच का विषय है। यह अजूबा नहीं तो क्या है कि हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में पहाड़ी चित्रकला यानी मिनिएचर पेंटिंग में स्नातकोत्तर की डिग्री तो है, पढ़ाने वाले मिनिएचरिस्ट नहीं हैं। विभाग का आलम यह है कि भाषा अधिकारी ही सहायक निदेशक बनेगा, कलाकार नहीं।

यह रहस्य नहीं कि मुख्यमंत्री का पद अतिव्यस्त रखने वाला पद है। उन्होंने मंत्रियों का काम भी देखना है, उन्हें नर्म या सख्त लहजे में समझाना भी है और एकाध मंत्री की यह फरियाद भी सुननी है कि, ‘या तो शक्तियां दे दो या काम ले लो!’ उन्हें निवेशक भी आकर्षित करने हैं और प्रदेश को सुशासन भी देना है लेकिन इस कला को भी स्पर्श देने का समय निकाल लें तो भला हिमाचल का ही होगा। इस कला में हिमाचल का भविष्य है, आर्थिकी है, ब्रांड है। आज कुछ प्रयासों से नैनसुख के स्तर के लोग तो पा लिए हैं, कला के संसार चंद की जरूरत है। ऐसा न हो जैसा होश तिर्मिजी ने कहा है :

दश्त-ए-वफा में जल के न रह जाएं अपने दिल

वो धूप है कि रंग हैं काले पड़े हुए।

लेखक दैन‍िक जागरण के राज्य संपादक हिमाचल प्रदेश हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.