Jagjit Singh Birth Anniversary: और जग ने भज लिए गजल सम्राट जगजीत सिंह
गजलों को अपनी आवाज देकर जिंदा करने वाले जगजीत सिंह की याद के जश्न का दिन है 8 फरवरी। गजल गीत नज्म और क्षेत्रीय भाषाओं में गाने वाले जगजीत की आवाज भजनों के माध्यम से भी खुरदरी रूहों को समतल बनाती रही है। उनके इसी रंग पर एक नजर..
कांगड़ा , नवनीत शर्मा। यह होशवालों को बेखुदी का अर्थ समझाते हुए और अंत में ‘हम्म हा हा हा हा हा’ से रूहों को सींचते जगजीत सिंह के जन्मदिन (8 फरवरी) का मौसम है। यह बीकानेर और श्रीगंगानगर से निकली बात के दूर तलक जाने और बरकरार रहने की ऋतु है। यही मौसम है यह सोचने का कि अगर जगजीत होते तो शायद किसी लाइव कांसर्ट में ‘ठुकराओ अब के प्यार करो, मैं नशे में हूं’ सुनाते और फिर अपनी आदत के मुताबिक ‘मैं नशे में हूं’ के स्थान पर ‘मैं अस्सी का हूं’ गाते। सत्तर के हुए थे तो कुछ जगह गाया था, ‘मैं सत्तर का हूं।’
दरअसल मोह लेने और जीत लेने में बहुत अंतर होता है। मोह लेना कला है, जीत में युद्ध का तत्व रहता है। जगजीत सिंह भले ही जगमोहन से जगजीत हो गए थे, लेकिन सुनने वाले को मोह लेने का काम उन्होंने हर विधा में किया। गजल गायन जैसी विधा में इतना मोह भर दिया कि आम आदमी में भी गजल को छू लेने का जज्बा पैदा हो गया। मुंबई जैसे बड़े समंदर में खो न जाएं, इसलिए आरंभ में जिंगल्स पर निर्भर रहे। उसके बाद गजलें गाईं, कुछ फिल्मों में संगीत दिया और पाश्र्व गायन किया। जब गजल के बेताज बादशाह बन चुके थे तो तलत महमूद और मुकेश जैसे अपनी पसंद के गायकों और आदर्शो के गीत भी गाए और नाम दिया ‘क्लोज टू माई हार्ट।’
तस्वीर सौजन्य: मिड डे
इस पूरी यात्र में एक विधा और थी जिसमें उन्होंने खुद को समर्पित किया। वह थी- भजन गायन। बेशक उनके लिए यह क्षेत्र भी नया नहीं था क्योंकि उनकी कई गजलों में धार्मिक या समर्पण का रंग दिखता रहा। कभी वह ‘उम्र जलवों में बसर हो यह जरूरी तो नहीं’ गाते हुए अजान का प्रभाव देने लगते थे तो कभी ‘सुनते हैं कि मिल जाती है हर चीज दुआ से, इक रोज तुम्हें मांग के देखेंगे खुदा से’ गाते हुए भजन का रंग बिखेरते। इस गजल की स्वर रचना ही ऐसी है कि सुनने वाला भजन का आनंद लेता है। निदा फाजली के दोहे और ‘गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला’ या ‘दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है’ में भजन या प्रार्थना का तत्व भरपूर है।
कभी पूरी तल्लीनता के साथ उन्हें ‘हे राम’ गाते हुए सुना जा सकता है और कभी कृष्ण भजन गाते हुए। कभी वह श्री गुरु गोबिंद सिंह रचित सबद को स्वर देते हैं, ‘मित्तर प्यारे नूं, हाल मुरीदां दा कहणा’ तो लगता है कि गुरु की वाणी वास्तव में कहीं ऊपर तक संप्रेषित हो रही है। यही सबद मोहम्मद रफी साहब ने भी बरसों पहले एक फिल्म के लिए गाया है। दोनों महान हैं, इसलिए तुलना भी संभव नहीं। रफी साहब का पाश्र्व गायन था और आवाज की अलग चमक थी जबकि श्री गुरु गोबिंद सिंह ने जिस परिवेश में वह सबद लिखा था, उस उदासी को जगजीत ने निभाया। तो कभी जगजीत हमें ‘बांके बिहारी घनश्याम, नैना रीत गए’ गाते हुए श्रीकृष्णमय कर देते हैं।
इस सबके बीच उनका श्रीकृष्ण से जुड़ा एक भजन ऐसा है जो मन पर छाई सारी कालिख धोने की कोशिश करता है। यह कलुष उस नमी से धुलता है जो भजन के शब्द और जगजीत की आवाज की जुगलबंदी के कारण सुनने वाले की आंखों में दिखती है। भजन है, ‘तुम ढूंढो मुङो गोपाल, मैं खोई गइया तेरी।’ जैसे गालिब को जगजीत ही संभाल सकते थे, वैसे ही इस भजन में श्रीकृष्ण और गाय के बहाने जीवन के सार और आम आदमी की भटकन और बिछोह को जगजीत का ही स्वर चाहिए था। इस भजन में गोधूलि या सांझ के समय अपने झुंड से बिछड़ी गाय की जो मार्मिक अर्जी श्रीकृष्ण के नाम लिखी गई है, वह जगजीत ही कर सकते थे। ‘अब मूक निहारूं बांट प्रभु जी, मैं गइया तेरी’..। एक दृश्य ही बन जाता है गाय का, जो अपनी आंखों से कुछ कह रही है, रंभाने के अलावा अगर कुछ कहना है तो लंबी जीभ से चाट सकती है बस।
चूंकि जगजीत सारी तकनीक छोड़कर भावप्रधान गायन से सबके दिल में प्रवेश ही नहीं करते हैं, हमेशा के लिए आसीन भी हो जाते हैं। इसीलिए जगजीत कहीं नहीं गए हैं, वे यहीं हैं। कहते हैं न कि शरीर तो सराय का पथिक है, जो आया है तो सबका जाएगा.. पर उसके अलावा जहां भी, जो भी और जैसे भी जगजीत हैं, उन्हें कहीं जाने की अनुमति नहीं है। ऐसे जगजीत सिंह की सांगीतिक स्मृति को नमन!