Hing Cultivation: भारत के लिए हींग उत्पादन की उम्मीद बने लाहुल और किन्नौर, नौ लाख प्रति हेक्टेयर होगी कमाई
Hing Cultivation in India शीत मरुस्थल लाहुल स्पीति की जमीन ने हींग के पौधों की जड़ों को जगह दे दी है। यह संभव किया है आइएचबीटी पालमपुर ने। सब ठीक रहा तो पांच वर्ष बाद देश के लिए हींग लाहुल स्पीति किन्नौर और मंडी के ऊंचाई वाले क्षेत्रों से मिलेगी।
पालमपुर, शारदाआनंद गौतम। मुहावरा है, 'हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आए' ...यानी जब कीमती संसाधनों का प्रयोग किए बिना कार्य संपन्न हो जाए। हींग जैसा मसाला या औषधीय वस्तु भारत के लिए इसलिए भी कीमती रही है क्योंकि यहां उत्पादन ही नहीं होता। लेकिन शीत मरुस्थल लाहुल स्पीति की जमीन ने हींग के पौधों की जड़ों को जगह दे दी है। यह संभव किया है हिमालय जैव संपदा एवं प्रौद्योगिकी (आइएचबीटी) संस्थान पालमपुर ने। सब ठीक रहा तो पांच वर्ष के बाद देश के लिए हींग लाहुल स्पीति, किन्नौर और मंडी के ऊंचाई वाले क्षेत्रों से मिलेगी। अभी भारत हींग के लिए ईरान, अफगानिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे देशों पर निर्भर है।
राष्ट्रीय पादप आनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो पुष्टि करता है कि 30 वर्ष में हींग के बीज का आयात भारत में नहीं हुआ है। यह प्रथम प्रयास है जब हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर ने हींग के बीज का आयात किया है। लाहुल-स्पीति की सैकड़ों हैक्टेयर वीरान भूमि पर हींग की खेती का ट्रायल आइएचबीटी ने किया है। अब किन्नौर और मंडी जिला में भी यह प्रयोग किया जा रहा है।
ऐसे विकसित होंगे पौधे
लाहुल स्पीति जिला में 800, किन्नौर में 1000 और मंडी जिले के जंजैहली में 300 पौधे रोपे जाएंगे। इन पौधों को मुख्यत: बीज तैयार करने के लिए लगाया है। पांच साल के बाद इन पौधों से फसल तैयार होनी है। जिसे बीज उत्पादन केंद्र में रखा जाएगा। इन पांच सालों में हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर नियमित तौर पर जहां किसानों के खेतों में जाकर पौधों की निगरानी करेगा वहीं उन्हें प्रशिक्षण भी प्रदान करेगा कि इन पौधों की किस प्रकार से देखभाल की जानी है। 2018 में आइएचबीटी ने केलंग के रिवलिंग गांव में आधा हैक्टेयर भूमि में करीब साढ़े तीन हजार पौधे प्रयोग के तौर पर रोपे थे। संस्थान ने रिवलिंग में अपनी लैब स्थापित की है जहां पौधों की नियमित निगरानी होती है।
एक पौधे से 25 ग्राम हींग
हींग के पौधे पांच साल के बाद तैयार होते हैं। जड़ों के पास एक कट लगाया जाता है, जहां से दूध जैसा पदार्थ निकलता है। इसे ओलिओ गम रेजिन कहा जाता है। यह शुद्ध हींग होता है जो तीन से चार दिनों के बाद सूख जाता है। सूखने के बाद उसे निकाल कर पौधे में फिर से दूसरी जगह पर कट लगा दिया जाता है। इस प्रकार से एक पौधे में दस से पंद्रह कट लगाए जाते हैं और औसतन बीस से पच्चीस ग्राम हींग निकलता है। पौधे के स्वास्थ्य पर यह निर्भर करता है कि उसमें कितने कट लगाए जाएं। हींग तीन रूपों में उपलब्ध होती है। जैसे-'आंसू', 'मास' और 'पेस्ट'। 'आंसू' राल का सबसे शुद्ध रूप है यह गोल या चपटा और रंग में भूरा या हल्का पीला होता है। मास एक व्यावसायिक रूप है जो आकार में एक समान होता है। 'पेस्ट' में कुछ बाहरी द्रव्य होते हैं, क्योंकि शुद्ध हींग को बेहद तीखी गंध के कारण प्रयोग नहीं किया जाता। इसमें स्टार्च और गोंद डाला जाता है। लोग यही मिश्रित हींग इस्तेमाल करते हैं। यह पाउडर या गोली के रूप में भी उपलब्ध होता है।
तीन जिलों से शुरू की हींग की खेती
हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के निदेशक डा. संजय कुमार का कहना है कृषि विभाग के साथ मिलकर प्रदेश के शीत मरुस्थल क्षेत्रों में हींग की खेती के प्रयास आरंभ किए हैं। लाहुल-स्पीति, किन्नौर और मंडी जिला के कुछ भागों में किसानों को हींग के पौधे बांटे हैं। प्रयोग भी होता रहेगा और किसानों को प्रशिक्षण और तकनीकी जानकारी भी समय-समय पर दी जाएगी। जहां तक प्रोसेसिंग की बात है, अभी हाथरस ही बड़ा केंद्र है जहां कच्चे हींग को प्रोसेस किया जाता है, हम भी अपने किसानों को सिखाएंगे, क्षमता बढ़ाएंगे।