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खड़ा पहाड़, क्या बस आंख का ही धोखा है; टूटते पहाड़ों की समस्या को समझने और उनका निदान करने का समय

हिमाचल प्रदेश की दुविधा यह है कि यहां विकास भी चाहिए और हरियाली भी। दोनों के बीच संतुलन ही एकमात्र हल है। कागजों में हो रहा पौधारोपण अभियान काश कुछ पहाड़ों की जमीन को इस मजबूती से पकड़ ले कि पहाड़ आत्महत्या न कर सके।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 05 Aug 2021 10:01 AM (IST)Updated: Thu, 05 Aug 2021 10:01 AM (IST)
खड़ा पहाड़, क्या बस आंख का ही धोखा है; टूटते पहाड़ों की समस्या को समझने और उनका निदान करने का समय
अब खड़ा पहाड़ भी आंख का धोखा ही प्रतीत होता है। फाइल

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। अब तो किसी का भी गिरना, न गिरना अप्रत्याशित हो गया है.. लेकिन बचपन में जब गिरते थे तो घर के लोग समझाते थे, ‘गिर गए तो क्या हुआ, पहाड़ की तरह खड़े रहना सीखो।’ सुनने को मिलता था, ‘अमुक आदमी का दिल पहाड़ की तरह है।’ पहाड़ के हौसले के बारे में भी बताया जाता। फिर सारे जहां से अच्छा.. भी गाते थे स्कूल में। एक पंक्ति में हिमालय पर्वत यूं संदर्भित होता था, ‘वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा!’

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..अब, पहाड़ के हौसले से आगे पहाड़ पर और पहाड़ से टूट रहे पहाड़ जैसे दुख के जिक्र का समय है। भूस्खलन शब्द आज से कुछ वर्ष पहले ही अगस्त की एक रात को पुराना पड़ गया था, जब मंडी जिले के कोटरोपी में करीब 50 लोग बसों समेत मलबे में दब गए थे। आज वहां आइआइटी मंडी के छात्रों द्वारा तैयार किए सेंसर आगाह करते हैं कि पहाड़ पर हलचल है। सड़क वैसी ही है। यह भूस्खलन नहीं था, इसे पहाड़ टूटना कहते हैं।

आज जब शिलाई-हाटकोटी राजमार्ग पर पहाड़ टूटता है तो ऐसा लगता है जैसे वर्षो से बिना थके ड्यूटी पर तैनात कोई व्यक्ति अचानक टूट कर गिर गया हो। यह अचानक है, न अकारण। इस राजमार्ग पर जहां पहाड़ गिरा, उससे नीचे कभी चूना पत्थर की खानें थी। घटनास्थल का दौरा करने आए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के दल ने भी ऐसे संकेत दिए हैं कि पहाड़ के कमजोर होने के पीछे यहां हुआ चूनापत्थर का खनन भी है। यह वही क्षेत्र है जहां खनिजों का हर प्रकार से इतना दोहन किया गया है कि अब खड़ा पहाड़ भी आंख का धोखा ही प्रतीत होता है।

वर्ष 1980 में जब सुप्रीम कोर्ट ने देहरादून क्षेत्र या दून घाटी में खनन पर रोक लगा दी तो प्राकृतिक खजाने का दोहन करने बड़े हाथ पांवटा साहिब होते हुए हिमाचल प्रदेश आ गए। वर्ष 1980 में गिनी चुनी खानें थीं और 1987 तक इनकी संख्या 70 हो गई। फिर पहाड़ बचाने एक महिला सामने आई। नाम था किंकरी देवी। उसने इस अंधाधुंध लूट के खिलाफ आवाज बुलंद की। शिमला में धरना दिया, उच्च न्यायालय में अर्जी लगा दी। तब के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूíत पीडी देसाई और न्यायाधीश आर ठाकुर ने सख्त फैसला खनन के विरुद्ध सुनाया। अदालत ने पाया कि सरकार के जिन संबद्ध विभागों से जवाब मांगा गया, उनके जवाब में कोई तालमेल नहीं है। इस विषय पर फटकार भी लगी। बाद में किंकरी देवी के खिलाफ खनन वाले लोग सुप्रीम कोर्ट तक गए जहां किंकरी देवी का पक्ष ठीक ठहराया गया। अदालत ने कुछ ऐसा फैसला दिया कि आगे खनन नहीं होगा, लेकिन जितना खनन हो चुका है, उतनी सामग्री उठाने की अनुमति खनन करने वालों को दी जाएगी।

हैरानी यह है कि 1995 के 20-25 साल बाद तक ‘पुरानी’ सामग्री निरंतर उठाई जाती रही। सवाल यह है कि इतनी सरकारें हुईं, पुरानी सामग्री कितनी है, यह देखने का अवकाश किसी को नहीं मिला। अपने हस्ताक्षर तक न कर सकने वाली बेहद साधारण महिला किंकरी देवी की मुरीद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन भी रहीं।

वास्तव में सरकार किसी की भी रही हो, खनन एक ऐसा विषय है जिस पर सबकी निगाहें रहती हैं। पहला कारण यह है कि किसी को अपनी जेब से कुछ नहीं देना होता। सामग्री प्राकृतिक है, ताकतवर किसी को भी उसके दोहन की अनुमति दे सकता है। दूसरा यह है कि एक एम फार्म होता है, जिसे माल उठाने या ले जाने की अनुमति मान लें.. वह कितनी बार प्रयोग हो जाए कोई नहीं जानता। समझा तो यह जाना चाहिए कि जब सड़क के लिए पहाड़ की खोदाई होती है, उसमें भी पत्थर और मिट्टी जैसी सामग्री निकलती है, फिर अतिरिक्त खनन का लोभ क्यों? यह विषय इतना संवेदनशील है कि हिमाचल प्रदेश के इतिहास में एक नौकरशाह उद्योग विभाग में गिने चुने दिन ही काट पाए थे। कारण यह था कि किसी राजमार्ग का काम देना था। नियम यह कहते थे कि जो सबसे पहले आएगा, उसे काम मिलेगा। प्रविधान यह देखने का भी था कि अगर कोई संगठित कंपनी काम लेती है तो सरकार की चिंता पर्यावरण ही नहीं, हर दृष्टि से कम हो जाती है। दबाव ऐसा बनाया गया कि कंपनी के बजाय एक विशेष व्यक्ति को वह काम दिया जाए ताकि ‘कई संबद्ध लोगों’ का दरिद्र कट सके।

यह ठीक है कि विकास कार्य बिना सामग्री के नहीं होंगे। लेकिन कहीं एक रेखा तो खींचनी पड़ेगी। रेणुका- हरिपुरधार मार्ग हो या कांगड़ा जिले के बोह जैसे क्षेत्रों में दरकते पहाड़। लाहुल में आती बाढ़ हो या भागसूनाग में अतिक्रमण को हटाने आता पानी.. ये सब कुछ तो कहते हैं। आखिर कौन देता है दरकने वाले क्षेत्र में भवन निर्माण की अनुमति? विज्ञानी कह चुके हैं कि टेक्टानिक प्लेट्स के लगातार टकराने के कारण वे कमजोर पड़ चुकी हैं, इसलिए भरोसा न करें।

तो क्या यह सार निकाला जाए कि जितने पहाड़ गिरे हैं, वे सब प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का परिणाम हैं? इससे राज्य के भूगर्भ शास्त्री पुनीत गुलेरिया सहमत नहीं हैं। तकनीकी शब्दावली से सुसज्जित उनके जवाब का सार यह है, ‘मीडिया गलत सार निकाल रहा है। कुछ जगहों पर पानी पहाड़ के अंदर तक चला जाता है। पानी की कई भूमिकाएं हैं। वह ल्यूब्रिकेंट भी है। इसलिए अगर कोई पहाड़ बैठ ही गया तो इसका यह अर्थ नहीं कि वहां खनन ही कारण है। हां, ऐसे पहाड़ पर सड़क निकालते समय एलाइनमेंट का ख्याल रखना चाहिए।’

हिमाचल प्रदेश की दुविधा यह है कि यहां विकास भी चाहिए और हरियाली भी। दोनों के बीच संतुलन ही एकमात्र हल है। कागजों में हो रहा पौधारोपण अभियान काश कुछ पहाड़ों की जमीन को इस मजबूती से पकड़ ले कि पहाड़ आत्महत्या न कर सके। वरना द्विजेंद्र द्विज का कहा गूंजता रहेगा : न जाने कितनी सुरंगें निकल गईं इससे, खड़ा पहाड़ तो बस आंख का ही धोखा था।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]


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