सिंहावलोकन: भाजपा में एकजुटता, कांग्रेस में रहा बिखराव
BJP United in LokSabha Election हिमाचल प्रदेश में सियासी बाजीगरी लोकसभा चुनाव से काफी पहले शुरू हो गई थी।
नवनीत शर्मा, धर्मशाला। हिमाचल प्रदेश में सियासी बाजीगरी लोकसभा चुनाव से काफी पहले शुरू हो गई थी। इस पहाड़ी प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी नियोजित रूप से चल रही थी जबकि कांग्रेस बिखरी हुई थी। भाजपा शुरू से एकजुट थी। थोड़ी बहुत शिकायतें रही भी होंगी तो बेहद दबे स्वरों में सामने आईं। भाजपा ने पहले तय किया कि वह मौजूदा सांसदों पर भरोसा जताएगी। अंतिम समय पर दो सांसदों के टिकट कटे। शांता कुमार और वीरेंद्र कश्यप। शांता कुमार ने दबे स्वरों में पीड़ा अभिव्यक्त की होगी लेकिन वह पूरा समय साथ चले। भाजपा का कुनबा बिखरा नहीं।
लेकिन कांग्रेस से अपना हाथ संभाला नहीं गया। कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू भले ही दावा करते रहे कि उन्होंने संगठन को मजबूत किया है लेकिन छह बार के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के साथ उनकी नहीं पटी। जहां तक जनाधार की बात है, उसमें वीरभद्र सिंह वय और अनुभव दोनों के आधार पर आगे ही रहे हैं। इसके बरक्स कांग्रेस का झगड़ा धारावाहिक रूप से चला। सुक्खू के हटने के बाद कुलदीप सिंह राठौर को कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया। वह आनंद की पसंद भी बने और बदले हालात में वीरभद्र सिंह को भी सूट करते थे। इधर, वीरभद्र सिंह की आलाकमान ने नहीं सुनी। मंडी सीट पर सुखराम भाजपा को झटका दे गए। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए भी अप्रिय स्थिति बनी।
यह दीगर है कि वह पैर की मोच के बावजूद मोर्चे पर रहे। सुखराम ने पहले भाजपा आलाकमान तक पोते के लिए टिकट मांगा, फिर कांग्रेस की शरण में चले गए। उनके पुत्र अनिल शर्मा कई धर्मसंकट में रहे। लेकिन सुखराम के पोते की एंट्री से उन्होंने न केवल भाजपा को असहज करना चाहा, बल्कि वीरभद्र सिंह को भी असहज कर दिया। वीरभद्र सिंह का निजी पैनल और था, जिसमें आश्रय कहीं नहीं थे। उसके बाद वीरभद्र सिंह ने जो प्रचार किया, वह किया तो सबके लिए लेकिन उनका दिल से ध्यान था कांगड़ा से कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल पर। मंडी में उन्होंने आश्रय शर्मा के सामने ही कई बार कहा कि सुखराम और उनके पुत्र ने जो भी किया, वह गलत था लेकिन उसकी सजा आश्रय को नहीं मिलेगी। हमीरपुर और शिमला के प्रत्याशियों के लिए भी जो उन्होंने कहा वह औपचारिकता अधिक थी।
कांग्रेस ने तीन चरणों में टिकट घोषित किए। सच यही है कि कोई लडऩे को तैयार नहीं था। हमीरपुर पर पड़ा पेंच सबसे लंबा रहा। वहां कई दिन सुरेश चंदेल दहलीज पर बैठे रहे। उन्हें कांग्रेस की दहलीज पर लंबे समय तक देखा गया। न उधर के रहे, न इधर के रहे। टिकट नहीं मिला। फिर 'बिना टिकट' कांग्रेस में शामिल हो गए। फायदा इतना ही हुआ कि यह कह पा रहे हैं, 'मैं टिकट के लिए नहीं आया हूं।' अंतत: कांग्रेस में चले गए। क्या और कितना अंतर डाल पाए हैं, यह 23 को पता चलेगा। हमीरपुर सीट पर अनुराग के खिलाफ कांग्रेस थी लेकिन कहीं-कहीं उनसे नाराज भाजपा भी थी। यह तो अमित शाह आए तो सक्रियता का स्तर और हो गया।
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