नई पीढ़ी का सपना विदेश, पुरानी का अपना देश
निर्वासन के छह दशक में बदल गया तिब्बतियों के संघर्ष का स्वर, पुरानी पीढ़ी को अब भी उम्मीद, कभी तो दिखेगा अपना देश
मैक्लोडगंज, मुनीष दीक्षित। ...सुनो भिक्षु मेरे सवाल बड़े सीधे और सरल हैं मैं जानना चाहता हूं कितने वर्षों का अपमान, पीड़ा और निर्वासन विद्रोह को जन्म देता है... कुछ तो बोलो भिक्षु यूं मौन न रहो यह स्वांग तुम्हें गूंगा कर देगा...कवि प्रदीप सैनी की ये पंक्तियां सवाल पूछती हैं जो हर शरणार्थी दिवस पर परिवेश में गूंजती है लेकिन तिब्बतियों के लिए ये दिवस अनवरत जारी है।
59 साल से निर्वासन, विस्थापित या शरणार्थी जैसे शब्दों से घिरे तिब्बती लोगों में आजाद होने की तड़प अब स्वायत्तता की इच्छा में भले ही बदल गई हो, पुरानी पीढ़ी के लिए घर की याद बराबर बनी हुई है। लेकिन यह भी सच है कि आधुनिक तिब्बती पीढ़ी उस दर्द से काफी हद तक नावाकिफ ही लगती है।
हां, करीब छह दशक से निर्वासन जी रहे तिब्बत के लोगों को अब भी उम्मीद है कि कभी तो सब कुछ अच्छा होगा और उन्हें तिब्बत जाने का अवसर मिलेगा। बेशक वे चीन के खिलाफ अलख भारत की सड़कों पर जगाते हों लेकिन उम्मीद की किरण भी जिंदा है। यहां रही तिब्बत की युवा पीढ़ी आधुनिकता के रंग में रंग
चुकी है और तिब्बत से अधिक अन्य देशों में बसने की चाह पालने लगी है। लेकिन तिब्बत को बचपन में छोड़कर आने वालों से लेकर अपने परिजनों के तिब्बत के संघर्ष को देखने वाली एक बड़ी पीढ़ी अब भी वहां बसने की चाह रखती है।
30 वर्षीय युवा थुपतेन बताते है कि उनका जन्म यहीं हुआ है, लेकिन वह चाहते हैं कि अब भी तिब्बत जाएं और अपने परिजनों की भूमि में रहें। 77 वर्षीय नमडूल कहती हैं कि जब उसे अपना देश छोड़ना पड़ा था, तो वह 19 साल की थी। उस समय उसकी माता का निधन हुआ था, घर के हालात ठीक नहीं थे। लेकिन
चीनी सेना के अत्याचार के कारण उसे अपने पिता व भाई के साथ देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था। लेकिन उन्हें खुशी इस बात की है कि आज भी उनके गुरु दलाईलामा उनके साथ हैं।
56 वर्षीय गयाल कहते है कि अब चीन में भी हालात ठीक होने लगे हैं, वहां के लोग भी लोकतंत्र चाहते हैं और पूरी उम्मीद है कि चीन में भी लोकतंत्र आएगा और तिब्बत के लोगों को न्याय मिलेगा। 92 साल की डोलमा का कहना है कि वह केवल देश लौटने की उम्मीद पर जिंदा हैं।
एक लाख 30 हजार तिब्बती रह रहे निर्वासन में
तिब्बत में चीन का कब्जा होने के बाद तिब्बत से वर्ष 1959 में दलाईलामा सहित हजारों लोग भारत में आ गए थे। उस समय की जवाहर लाल नेहरू सरकार ने उन्हें यहां शरण दी थी। मौजूदा समय में पूरी दुनिया में करीब एक लाख 30 हजार तिब्बती शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। इनमें सबसे अधिक तिब्बती लोग भारत, नेपाल व भूटान में हैं। इसके अलावा अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया व कनाडा में भी तिब्बत के लोग
रहते हैं।