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बेटियों के विरोध में खड़ी इस जहरीली मानसिकता के लिए कौन सी वैक्सीन काम करेगी?

बेटियों की बेहतरी के लिए हमारे देश में निरंतर अभियान तो चलाया जाता है लेकिन धरातल पर ऐसे वास्तविक कार्य कम ही होते हैं जिससे उन्हें बढ़ावा मिल सके। समय आ गया है जब बेटी को अयाचित वरदान नहीं समझते हुए उसके साथ उचित बर्ताव किया जाए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 10 Dec 2020 12:38 PM (IST)Updated: Thu, 10 Dec 2020 01:02 PM (IST)
बेटियों के विरोध में खड़ी इस जहरीली मानसिकता के लिए कौन सी वैक्सीन काम करेगी?
वास्तव में यह समय हर उस अभियान को दोहराने का है जो बेटियों के हक में आवश्यक है।

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। यह भारतीय लोकमानस की विशेषता है कि बेटी का पिता समृद्ध हो या विपन्न, वह बेटी के लिए राजा ही होता है। इन संदर्भों में बाबुल का अर्थ सम्राट हो जाता है। जाहिर है बाबुल का दिल भी बड़ा होना चाहिए। लेकिन सघन सरकारी प्रचार के बावजूद कुछ बाबुल जब बाबुल ही नहीं बनना चाहते तो सम्राट कैसे बन सकते हैं। बेशक 11 अक्टूबर अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के लिए आरक्षित है... निस्संदेह 24 जनवरी राष्ट्रीय बालिका दिवस के लिए तय है, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा निरंतर गूंजता है, इसके बावजूद कानों में पिघले हुए शीशे की तरह यह सूचना पीड़ा देती है कि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा खंड की कुछ पंचायतों में लिंगानुपात बेहद कम रह गया है।

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बाल विकास कल्याण के संदर्भ में एक सरकारी सर्वेक्षण ही कहता है कि इस राज्य के अपर लंज, समीरपुर खास, अब्दुल्लापुर और जन्यानकड़ जैसी पंचायतों में 1,000 बालकों के बरक्स केवल 700 बालिकाएं हैं। कांगड़ा जिले का लिंगानुपात दो वर्ष पहले 915 था, जो अब मात्र 827 रह गया है। इनमें अधिकतर वे पंचायतें हैं जिनकी सुबह माता बज्रेश्वरी की घंटियां गूंजने के साथ होती है। कांगड़ा स्थित वही मां बज्रेश्वरी, जिसके दर पर भारत भर और खासतौर पर उत्तर प्रदेश से भक्त आकर कंजक पूजन करते हैं। कांगड़ा मंदिर और कांगड़ा किले से मुखातिब समेला पंचायत में तो अर्से से बेटी की किलकारी नहीं सुनी गई है। यही हाल डडोली का है। बेटे करीब 10 पैदा हुए हैं। कोरोना की वैक्सीन का आना तो तय है, लेकिन जो कारण बच्चियों को संसार में नहीं आने दे रहे हैं, उनका समूल नाश कौन करेगा? बेटियों के विरोध में खड़ी इस जहरीली मानसिकता के लिए कौन सी वैक्सीन काम करेगी?

इस सूचना के कई अर्थ हैं। यह सूचना यह कहती है कि लिंगानुपात के लिए हरियाणा को कोसने वाले ठहर जाएं... शर्मनाक लिंगानुपात के लिए देश के सौ जिलों में शामिल हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले को कोसने वाले रुकें, ठहर जाएं शिक्षित और विकसित होने का दावा करने वाले बुद्धिजीवी। हरियाणा इस मामले में जरूर संभला है। हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में भी लिंगानुपात 875 था, जो 2018-19 में ही 948 तक पहुंच गया। जिला प्रशासन ने कुछ पहल की थी, उपलब्धियां हासिल करने वाली बेटियों के चित्रों से सुसज्जित र्होंिडग लगाए गए थे। शिमला के जिलाधीश ने हाल ही में यह निर्णय लिया है कि अब किसी भी घर की पहचान बेटी के नाम से होगी। नवजात बेटियों के नामकरण के बाद उनके नाम की पट्टिका घर के बाहर लगाई जाएगी। मंडी में भी इस दृष्टि से अच्छा काम हुआ था। हिमाचल ने गुड़िया हेल्पलाइन की शुरुआत भी की है। सवाल यह भी है कि है कि बेटियों का सम्मान तो तब करें जब उन्हें पैदा होने दिया जाए।

विश्वविद्यालय हो या विद्यालय, व्यावसायिक पढ़ाई वाले संस्थान हों या अन्य संस्थान, मेरिट सूची पर बेटियों का वर्चस्व रहता है। इसके बावजूद वे कौन से औजार हैं... किस प्रकार की मूक सहमतियां हैं... किस तरह के हथियार हैं... किस स्तर की पाषाण हृदयता है कि कुछ क्षेत्रों में बेटियों की आहट तक से वंचित हो गए हैं तमाम अभिलेख? पठानकोट के नामी शायर पूरन अहसान ने कभी लिखा था :

खुशी से मां को कहां कुछ सुझाई देता है, जो बेटा हाथ में पहली कमाई देता है। यह उस सामाजिक-र्आिथक परिवेश से निकला चिंतन है, जहां बेटे को कुलदीपक, वंश को आगे ले जाने वाला, चिराग, कमाऊ पूत जैसे विशेषणों से अलंकृत कर समृद्ध रखा जाता था। अब तो कई दशकों से यह धारणा भी ध्वस्त हो गई, क्योंकि बेटियां अपने बलबूते पर कमा रही हैं, खा रही हैं। सच तो यह है कि ज्यादातर बेटों की अन्यत्र और विचित्र व्यस्तताओं ने उन्हें इस योग्य भी नहीं छोड़ा है कि वे अपने अभिभावकों को मनोवैज्ञानिक संबल भी दे सकें। बेटियों का जुड़ाव, उनकी जोड़ने की नैर्सिगक मंशा कोई रहस्य नहीं है।

बेशक पहली चेतना समाज के स्तर पर ही आनी चाहिए। आदर्शों का अकाल नहीं है। अनुकरणीय दृष्टांत अब भी बहुत हैं। जिनके विवेक जगे हैं, उन्हें साधुवाद। जिनके नहीं जगे हैं, उनके लिए शासन को इतना सख्त और सतर्क होना चाहिए कि दीवारों के भीतरी अंधेरे में किसी मशीन को यह पता लगाने की इजाजत न हो कि संसार में क्या आने वाला है।

सरकारी आंकड़ों को भी देखें तो वह ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति को शहरी क्षेत्रों की तुलना में ठीक बताते हैं। वर्ष 2019 के आंकड़े कुल्लू, मंडी और हमीरपुर के साथ हिमाचल के बारे में इसी धारणा को पुख्ता करते हैं। कुल्लू ग्रामीण में लिंगानुपात 1,055 है, जबकि शहर में 705 है। मंडी में ग्रामीण क्षेत्रों में 1,000 बालकों पर 1,004 बेटियां हैं। हिमाचल में लिंगानुपात 920 है। ग्रामीण क्षेत्रों में 924 और शहर में 917 है। वास्तव में यह समय हर उस अभियान को दोहराने का है जो बेटियों के हक में आवश्यक है। हमें समझना चाहिए कि वह अयाचित वरदान नहीं है।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]


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