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राजा के शहीदी दिवस पर लगता है देहरे दा मेला

राजा राज सिंह के खून से लथपथ पंजे का वह निशान आज भी उस शिला पर अंकित है और वही शिला स्मृति शिला एवं राजे का देहरा के रूप में पूजनीय है।

By BabitaEdited By: Published: Thu, 21 Jun 2018 10:32 AM (IST)Updated: Thu, 21 Jun 2018 03:12 PM (IST)
राजा के शहीदी दिवस पर लगता है देहरे दा मेला
राजा के शहीदी दिवस पर लगता है देहरे दा मेला

धर्मशाला, जेएनएन। शाहपुर हलके का नेरटी गांव चंबा के राजा राज सिंह की एतिहासिक गाथा को अपने आंचल में समेटे हुए है। यह गांव चंबा के राज परिवारों का आवास भी रहा है। रेहलू के किले के साथ-साथ नेरटी के गढ़ में भी राजाओं का निवास एवं राजकाज का कार्य होता था। राजा राज सिंह का तलवार कौशल 

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जहां इतिहास प्रसिद्ध रहा है, वहीं उनकी देवी माता घोरका के प्रति अपार आस्था भी आध्यात्मिकता की मिसाल थी। कांगड़ा नरेश संसार चंद ने इसी देवी की प्रतिमा और रेहलू व नेरटी के हार को अपने अधीन करने की मंशा रखते हुए राजा राज सिंह को बंदी बनाने के लिए सैनिक भेजे थे।

इन सैनिकों ने धोखे से गढ़ में राजा राज सिंह से छदम युद्ध किया था। आषाढ़ प्रविष्टे सात सन 1794 में हुए इस छदम युद्ध में राजा राज सिंह की खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा शत्रु सैनिक की तलवार के वार से भले ही उड़ गया पर फिर भी वे ढाई घड़ी तक शरीर के घावों के बावजूद दुश्मन सैनिकों के साथ तलवार के बल से मुकाबला करते हुए देहरा तक पहुंच गए थे।

देहरा में किसी द्वारा यह कहने पर कि देखो, राजा बिना खोपड़ी के लड़ रहा है तो इसे सुनते ही राजा ने

अपने सिर पर हाथ रखा तो उसे खून से लथपथ पाया और वहीं एक शिला पर हाथ मारकर मूर्छित होकर शहीद हो गए थे। राजा राज सिंह के सैनिकों ने पीछा कर गज्ज खड्ड के पार घाटी में जाकर शत्रुओं से मुकाबला कर खोपड़ी के हिस्से को छुड़ाया था। इसके बाद राजा राज सिंह का अंतिम संस्कार रेहलू में खौहली खड्ड के किनारे किया गया था।  राजा राज सिंह के खून से लथपथ पंजे का वह निशान आज भी उस

शिला पर अंकित है और वही शिला स्मृति शिला एवं राजे का देहरा के रूप में पूजनीय है। राजा के बेटे जीत सिंह ने 1794 से 1796 के मध्य उनकी यादगार में शिव मंदिर का निर्माण करवाया और उसी वर्ष से मेले के आयोजन की परंपरा भी डाली।

उसी समय से राज सिंह के शहीदी दिवस आषाढ़ प्रविष्टे सात को उनकी स्मृति में देहरे दा मेला आयोजित होता है। लोक साहित्य परिषद और इसके संस्थापक निदेशक डॉ. गौतम शर्मा व्यथित के प्रयासों से मंदिर के विकास के लिए सरकार से सहायता भी मिली है।

 -रमेशचंद्र मस्ताना, नेरटी


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