भीड़ के बिना मिंजर मेले का आगाज आज, मुस्लिम परिवार भगवान रघुनाथ जी को अर्पित करेगा मिंजर
चंबा का ऐतिहासिक व अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेला सदियों से मनाया जा रहा है लेकिन इस बार कोरोना के कारण इस मेले से रौनक गायब रहेगी।
मिथुन ठाकुर, चंबा
चंबा का ऐतिहासिक व अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेला सदियों से मनाया जा रहा है लेकिन इस बार कोरोना के कारण इस मेले से रौनक गायब रहेगी। जिला चंबा के लोगों के लिए हर वर्ष जुलाई का अंतिम रविवार काफी अहम होता है। माह के अंतिम रविवार को चंबा मुख्यालय में अंतरराष्ट्रीय मिजर मेले का आगाज होता है। नगर परिषद कार्यालय से एक शोभायात्रा निकलती है, जो लक्ष्मीनाथ मंदिर से होते हुए पिक पैलेस पहुंचती है। यहां पहुंचने के बाद मिर्जा परिवार द्वारा बनाई गई मिजर को भगवान रघुनाथ को अर्पित करने के साथ ही मिजर मेले का आगाज होता है।
मिजर मेले को हिदू-मुस्लिम भाईचारे का भी प्रतीक माना जाता है। चंबा के मिर्जा परिवार के सदस्य आज भी हिदू भाइयों के लिए मिजर बनाते हैं। करीब 400 साल से यह परंपरा निभाई जा रही है। चंबा शहर राजा साहिल वर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था, इसलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था। शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह रघुवीर जी को चंबा लाए थे। शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था। मिर्जा साहब जरी गोटे के काम में माहिर थे। चंबा पहुंचने पर उन्होंने जरी की मिजर बनाकर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी। तब से मिजर मेले का आगाज मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिजर भेंट करके करता है।
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इसे कहा जाता है मिजर
मक्की, गेहूं, धान और जौ आदि की बालियों को स्थानीय लोग मिजर कहते हैं। मिजर मेले के दौरान जरी या गोटे से बनाई गई मिजर को कमीज के बटन पर लगाया जाता है और मेले के दौरान पहना जाता है। मेले के समापन पर इसे रावी नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मिजर का आदान-प्रदान करना शुभ माना जाता है। आजकल मेले का स्वरूप बदला है लेकिन हिदू देवताओं पर अर्पित होने वाली मिजर को मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा तैयार करने की परंपरा कायम है। मुस्लिम समुदाय के लोग रेशम के धागे में मोती पिरोकर मिजर तैयार करते हैं।
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ऐसे बदला स्वरूप
पद्मश्री विजय शर्मा की मानें तो 1946 तक चंबा में झोटे (भैंसे) को रावी नदी में उतारा जाता था। मान्यता थी कि यदि भैंसा रावी के पार पहुंच जाए तो चंबा नगर के सभी दुख खत्म हो जाएंगे। लोग दूरदराज के गांवों से मिजर में सिर्फ अंतिम दिन शोभायात्रा को देखने के लिए आते थे। 1947 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया। अब सिर्फ मिजर का ही विसर्जन किया जाता है।
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मेले की परंपराएं
मिजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की शोभायात्रा निकलती है। इसे चंबा के एतिहासिक चौगान तक लाया जाता है, यहां से मेले का आगाज होता है। भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से अधिक देवी-देवता भी चौगान में पहुंचते हैं। मिजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है। यहां मिजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर, एक रुपया और फल-मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है।
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मिंजर मेले के आगाज पर प्रवेश रहेगा वर्जित
कोविड-19 के बीच रविवार को शुरू होने वाले मिजर मेले के दौरान इस बार कई प्रकार की पाबंदियां रहेंगी। रविवार सुबह नौ से दोपहर एक बजे तक चंबा शहर के चौगान वार्ड, हटनाला वार्ड, चौंतड़ा वार्ड और सपड़ी वार्ड पूरी तरह से सील रहेंगे। भरमौर चौक पर नाकाबंदी कर शहर में किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी।
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पूजा-अर्चना के साथ होगा शुभारंभ
इस साल मिजर मेला मात्र पारंपरिक रस्मों के निर्वहन तक ही सीमित रहेगा। रविवार को शुभारंभ के मौके पर पूजा-अर्चना के साथ मिजर अर्पित की जाएगी। शहर के गण्यमान्य नगर परिषद कार्यालय चंबा से श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर एवं हरिराय मंदिर के लिए रवाना होंगे। चौगान नंबर एक में ध्वजारोहण किया जाएगा। मिजर मेले के शुभारंभ अवसर पर शहर की जनता भाग नहीं ले पाएगी। दो अगस्त को मिजर का समापन भी रावी नदी में मिजर प्रवाहित करने की परंपरा के साथ होगा। 26 जुलाई से प्रतिदिन शाम पारंपरिक कुंजड़ी मल्हार गायन प्रस्तुत किया जाएगा, जिसे केबल नेटवर्क व अन्य माध्यमों से लाइव प्रसारित किया जाएगा।