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ये जरूरी है कि बीमार का हाल अच्छा हाे

कई वर्षों से यह हादसा होता आ रहा है कि राजनीति या सियासत जैसे शब्दों को राजनीति शास्त्र की किताबों से बाहर धकेला गया है और राजनीति की परिभाषा नई गढ़ी गई है।

By BabitaEdited By: Published: Thu, 24 Jan 2019 11:35 AM (IST)Updated: Thu, 24 Jan 2019 11:35 AM (IST)
ये जरूरी है कि बीमार का हाल अच्छा हाे
ये जरूरी है कि बीमार का हाल अच्छा हाे

शिमला, नवनीत शर्मा। बिलासपुर में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स के शिलान्यास के बाद अब भूमि पूजन भी हो गया है। हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य के लिए इसकी उपयोगिता और उपादेयता पर शोध की आवश्यकता नहीं है। बड़े हादसे या बीमारी की सूरत में हिमाचल प्रदेश ने लुधियाना, जालंधर और चंडीगढ़ की तरफ भागती व्याकुल एंबुलेंस बहुत बार देखी हैं..। बहुत पुरानी बात नहीं कि जब प्रदेश के दो आला अफसर गंभीर रूप से बीमार हुए तो उपचार हिमाचल प्रदेश में नहीं हो पाया था। ऐसे में एम्स का अर्थ जीवन से ही जुड़ता है। इसी साल से ओपीडी का वादा भी है। दो साल बाद जब यह सपना पूरा आकार ले लेगा तो हिमाचल के मुंह पर रौनक आएगी। 

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हिमाचल प्रदेश के लिए इस भव्य और दिव्य सपने के लिए भूमि पूजन के समय को बेशक कुछ लोग लोकसभा चुनाव से भी जोड़ सकते हैं। लेकिन अगर यह सियासत भी है तो सियासत ऐसी ही होनी चाहिए। जो राजनीतिक लोग वादा पूरा नहीं कर पाते और टोके जाने पर मासूम चेहरे के साथ कहते हैं, ‘वह तो सियासी बयान था’, वे सही अर्थ में न सियासी हैं और न राजनीतिक। कई वर्षों से यह हादसा होता आ रहा है कि राजनीति या सियासत जैसे शब्दों को राजनीति शास्त्र की किताबों से बाहर धकेला गया है और राजनीति की परिभाषा नई गढ़ी गई है।

इस परिभाषा के तहत राजनीति का अर्थ दूसरे को लंगड़ी लगाना, पलटी लगवाना, पलटी मारना, गुलाटी खाना जैसे शब्द प्रयोग में देखा जा सकता है। इस दृष्टि से उस कार्यक्रम का चित्र बड़ा प्रभावी था जिसमें मुख्यमंत्री और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री क्रमश: फावड़ा और कुदाल लिए हुए हैं और मुस्कराते हुए सांसद अनुराग ठाकुर जेपी नड्डा के पीछे उनके बाजू को स्पर्श कर के खड़े हुए हैं। यह संदेश है कि मामला श्रेय का नहीं हिमाचल की जीत का है। 

हां, यह परियोजना समय से पूरी नहीं हुई तो वादाखिलाफी होगी। इस परियोजना को लगातार गवाहों की जरूरत

पड़ेगी। केंद्रीय विश्वविद्यालय भी वक्त की अदालत में अपने गवाहों को ढूंढ रहा है, जो दिखाई नहीं देते। हिमाचल प्रदेश की जिस जमीन पर एम्स का सपना आकार ले रहा है, वह एक लोकगाथा के नायक ‘मोहणा’ की जमीन है। एक निर्दोष मोहन ने भाई का गुनाह अपने सिर ले लिया था। सांडू के मैदान में उसे फांसी हो गई क्योंकि

उसकी तरफ से कोई गवाह नहीं था। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगर वक्त की अदालत में एम्स कभी हारने लगे तो न केवल मुद्दई चाक चौबंद होगा बल्कि गवाह भी चुस्त होंगे। यह 72 लाख लोगों के स्वस्थ जीवन के अधिकार का सपना है... ट्रॉमा सेंटरों के केवल जुबानी जमा खर्च के जाप से जो पीड़ा लोगों ने महसूस की है, यह उसे हरने का सपना है।

हिमाचल प्रदेश के स्वास्थ्य इतिहास में यह ऐसा पहला सपना है जिसके साथ ‘अखिल भारतीय’ शब्द युग्म प्रयोग हुआ है। इससे गर्व की तपिश आती है। इससे पहले 1952 में हिमाचल में कांगड़ा के टांडा में टीबी सेनेटोरियम था। हिमाचल प्रदेश मेडिकल कॉलेज के रूप में 1966 में शिमला में शुरुआत हुई। 1984 में इसका नाम इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज हो गया। इधर, जो टीबी सेनेटोरियम था, उसे 1996 में मेडिकल कॉलेज की शक्ल मिली। दोनों अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार मरीजों की सेवा कर रहे हैं।

इन दोनों बड़े संस्थानों से पहले हालात यकीनन यही रहे होंगे जैसे शायर द्विज ने कहा :

ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं  पाता मरीज

कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के खिलाफ

उसके बाद चंबा, मंडी, नाहन और हमीरपुर में भी मेडिकल कॉलेज शुरू हो गए। हालांकि वे अभी उधार के मानव संसाधन से जरूरी पात्रताओं को साधने में लगे हैं लेकिन असल काम शिमला और टांडा में ही दिख रहा है। ये अस्पताल वे काम भी कर रहे हैं, जिन्हें जिला, नागरिक या उपमंडलीय अस्पताल नहीं कर पा रहे हैं या करना ही नहीं चाहते। रेफर करना ऐसा शौक बन गया है कि जिन्हें ‘सिजेरियन केस’ बता कर बड़े अस्पताल को रेफर किया जाता है, बड़े अस्पताल में वही सामान्य प्रसव में बदल जाते हैं। केंद्र की आयुष्मान भारत योजना के अलावा हिमाचल की अपनी योजना हिम केयर भी राहत दे रही हैं।

 हिमाचल प्रदेश सरकार ने हाल में एक कदम का एलान किया है कि कार्य संस्कृति लाई जाएगी। इस घोषणा का अर्थ इस स्वीकारोक्ति से भी जुड़ता है कि अभी कार्य संस्कृति है ही नहीं। जो भी हो, ऐसे किसी कदम की तैयारी है तो उसे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर जिला अस्पताल तक लागू करें। कार्य संस्कृति के लिए पहली शर्त है कि कार्य करने वाले पूरे हों, दूसरा यह है कि संस्कृति के लिए निगरानी ही काफी नहीं, कार्य करने वालों में इस भावना की जरूरत है। 

हिमाचल जैसे कठिन भौगोलिक स्थितियों वाले राज्य के लिए ये राहतें ही बहुत हैं कि अस्पताल में डॉक्टर मिल जाएं... एंबुलेंस का तेल खत्म न हो जाए... दुआओं के अलावा अस्पतालों से जो दवाइयां मिलती हैं, उनमें भी असर हो। ऐसे प्रदेश में एम्स कितना बड़ा काम है, यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। यह संजीदगी एम्स के लिए ही गालिब के शब्दों में यूं बयां होगी :

उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पे रौनक

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

एम्स के बाद देखने में ही नहीं, असल में भी यकीनन बीमार का हाल अच्छा होगा, ऐसी उम्मीद है।


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