अनादिकाल से चली आ रही गुरु शिष्य की परंपरा
गुरू महत्व और गुरू शिष्य परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है तथा वर्तमान परिपेक्ष्य में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर परिसर में गुरू पूर्णिमा के पावन अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित शिष्यों को संबोधित करते हुए
संवाद सहयोगी, बिलासपुर : गुरु-शिष्य परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर परिसर में गुरु पूर्णिमा पर आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित शिष्यों को संबोधित करते हुए पंडित परमानंद शर्मा ने कहा कि गुरु द्रोणाचार्य राजकुमारों के शस्त्र विद्या के गुरू थे तथा वे अपने शिष्यों को इस विद्या का ज्ञान बांटते थे। ऐसे में एक भी युवक एकलव्य उनके पास आया और धनुष विद्या सीखने का आग्रह गुरु द्रोणाचार्य से किया। गुरु ने कहा कि वे राजकुमारों के गुरु हैं और वे उन्हें इस विद्या को नहीं सीखा सकते। धुन के पक्के एकलव्य ने मन में उन्हें गुरु धारण किया और मिट्टी की मूर्ति बनाकर अपने अभ्यास को जारी रखा। एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ जंगल में जा रहे थे उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुत्ते ने भौंकना शुरू किया तो एकलव्य ने एक साथ कई तीर चलाकर कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। लेकिन इससे कुत्ते को एक भी चोट नहीं आई। गुरु द्रोण और सभी शिष्य इस दृश्य को देखकर हैरान रह गए। द्रोण ने उसकी धनुष विद्या को देखते हुए सोचा कि वह प्रिय शिष्य अर्जुन से आगे निकल न जाए तो उन्होंने एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य की गुरू दक्षिणा के भाव गुरु के प्रति त्याग और समर्पण को दर्शाते हैं।