आदिबद्री में विराजमान महाभारकालीन पांचजन्य शंख बना श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र
आदिबद्री मंदिर में विराजमान पांचजन्य शंख कपालमोचन में आने वाले श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना है। उसे भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में बजाकर युद्ध की शुरुआत की थी। मंदिर के महंत के अनुसार पांच हजार 119 वर्ष पुराना पांचजन्य शंख है।
पंकज बत्रा, बिलासपुर
आदिबद्री मंदिर में विराजमान पांचजन्य शंख कपालमोचन में आने वाले श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना है। उसे भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में बजाकर युद्ध की शुरुआत की थी। मंदिर के महंत के अनुसार पांच हजार 119 वर्ष पुराना पांचजन्य शंख है। कपालमोचन मेले से आदिबद्री में दर्शन करने वाले प्रत्येक श्रद्धालुओं पांचजन्य शंख के दर्शन मात्र से अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है। महाभारत के युद्ध समापन के बाद जब पांडव उत्तर दिशा की ओर निकले तो सिधुवन में भगवान नारायण की तपोस्थली पर पांचजन्य शंख को रखा गया। शंख के बजाने से मानव को संक्रामक रोगों से मुक्ति मिलती है। वातावरण से नकारात्मक उर्जा खत्म होती है, जिस स्थल पर शंख विराजमान है, उसके पास कई किलोमीटर तक पर्यावरण और प्रकृति शुद्ध रहती है।
आदिबद्री मंदिर के महंत पंडित अरविद चौबे ने बताया कि मान्यता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास का समय भी यही बिताया था। महाभारत के आरंभ में भगवान श्री कृष्ण ने बजाया गया पांचजन्य शंख आज भी यहां आदिबद्री मंदिर में मौजूद है। पांचजन्य शंख को विशेष धार्मिक उत्सवों पर पर्व पर ही बजाया जाता है। हरि प्रबोधनी एकादशी के दिन आठ नवंबर को भी शंख को आरती के समय सुबह शाम बजाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु पाताल लोक से धरा लोक पर अवरित होते है। ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर उत्तराखंड में बने बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिर से भी प्राचीन है। महंत ने बताया कि ऋषि वेदव्यास ने आदि बद्री तीर्थ में श्रीमद्भागवत पुराण की रचना की थी और पांडवों ने अपना अज्ञात काल भी आखिरी वर्ष यही बिताया था।
एक बार नारायण लक्ष्मी से रुष्ठ होकर सिधुवन में आकर तपस्या में विराजमान हो जाते है। आकाश लोक में खोज करने पर जब नारायण को कुछ पता नही चलता तो माता लक्ष्मी नाराद मुनि का स्मरण करती है और नारद जी लक्ष्मी जी को कहते हैं कि जब में मृत्यु लोक से विचरण करते हुए निकल रहा था, तो मैंने शिवालिक की तलहटी में बहने वाली सरस्वती नदी के पश्चिम तट पर संप्रास नामक गुफा में देखा तो आदिबद्री नारायण तपस्या में लीन है। उसकी पूजा व्यास जी कर रहे है, माता लक्ष्मी ने नारायण जी को तपस्या करते हुए देखा तो नारायण जी का रंग काला पड़ गया है, तो लक्ष्मी माता ने बदली बन कर छाया की तभी से इसका नाम आदिबद्री नारायण पड़ गया। कार्तिक पूजन को श्री आदिबद्री नारायण मंदिर मे पूजन का अधिक महत्व बड़ जाता है ।
ब्रह्माचारी विनय स्वरूप ने बताया कि कार्तिक में पर्यावरण व प्रकृति सुखद संदेश लेकर आता है। इस मास में आदिबद्री नारायाण की तप मुद्रा को विशेष प्रभाव है। पांचजन्य शंख वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करता है। उसके श्रवण से श्रोता की हृदय गति नियंत्रित रहती है। हृदय रोग से भी दूर रखता है।