अनेकता में एकता का संदेश देता कपालमोचन मेला
ऐतिहासिक कपालमोचन-आदिबद्री मेला देशभर में प्रसिद्ध है। यह ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल विभिन्न वर्गो धर्मो तथा जातियों की एकता का प्रतीक है। लाखों की संख्या में हिदू मुस्लिम तथा सिख हर वर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा के अवसर पर यहां लगने वाले मेले में भाग लेते हैं।
जागरण संवाददाता, कपालमोचन : ऐतिहासिक कपालमोचन-आदिबद्री मेला देशभर में प्रसिद्ध है। यह ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल विभिन्न वर्गो, धर्मो तथा जातियों की एकता का प्रतीक है। लाखों की संख्या में हिदू, मुस्लिम तथा सिख हर वर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा के अवसर पर यहां लगने वाले मेले में भाग लेते हैं। मोक्ष की कामना से तीन पवित्र सरोवरों क्रमश: कपाल मोचन सरोवर, ऋण मोचन सरोवर और सूरजकुंड सरोवर में स्नान करते हैं।
कपालमोचन तीर्थ स्वयं में प्राचीन इतिहास समेटे हुए है। पुराणों के अनुसार कपाल मोचन तीर्थ तीनों लोकों के पाप से मुक्ति दिलाने वाला स्थल है। इसके पवित्र सरोवरों में स्नान करने से ब्रह्मा हत्या जैसे महापाप का निवारण होता है। आदिकाल में कार्तिक पूर्णिमा की अर्द्धरात्रि में भगवान शिव की ब्रह्मा कपाली इसी कपाल मोचन सरोवर में स्नान करने से दूर हुई थी।
कलियुग ने डाली थी यज्ञ में आहुति
पुजारी सुभाष शर्मा ने बताया कि प्राचीन कथा के अनुसार सिधु वन का यह स्थान ऋषि मुनियों की यज्ञस्थली रहा है। प्राचीनकाल से ही इस भू-भाग पर पांच तीर्थ कपालेश्वर महादेव (कलेसर)तथा चंडेश्वर महादेव (कालाअंब) स्थित है। इनके मध्य 360 यज्ञ कुंड है। इनमें कपालेश्वर तीर्थ प्रमुख एवं केंद्र बिदु है। राजा परीक्षित के शासन काल में कलियुग के आगमन पर ऋषि मुनियों ने एक महायज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में आहुति डालने के लिए ब्रह्मा, विष्णु एवं भगवान शिव को बुलाया गया। यज्ञ में आहुति के समय प्रजापति ब्रह्मा ने कहा कि मैं सबसे बड़ा हूं, क्योंकि मैं संसार का रचयिता हूं। इसलिए आहुति मेरे हाथ से डाली जाएगी, लेकिन विष्णु भगवान ने कहा कि मैं संसार का पालक हूं। आहुति मेरे हाथ से डाली जाएगी। इस पर भगवान शिव शंकर ने कहा कि मैं संसार का संहारक हूं, आहुति मेरे हाथ से डाली जाएगी। तब कलियुग ने आपत्ति करते हुए कहा कि मेरा आगमन हो चुका है और आहुति मेरे हाथ से डाली जाएगी। इस पर शिव नाराज होकर आदिबद्री चले गए इसलिए कोई आहुति नहीं डाल सका।
यज्ञ के सार हुआ कन्या का जन्म
इस यज्ञ के सार से एक कन्या का जन्म हुआ, जिसका नाम सरस्वती रखा गया तथा ब्रह्मा जी की बुद्धि को मलिन कर दिया। अपनी पुत्री के प्रति उनकी कुदृष्टि हो गई। सरस्वती को इसका आभास होने पर वह अपनी सुरक्षा के लिए शिवालिक की पहाड़ियों में आदि बद्री के स्थान पर तपस्या लीन भगवान शिव की शरण में चली गई। ब्रह्मा जी भी सरस्वती को ढूंढ़ते ठीक शिव की तपस्या स्थली पर पहुंच गए।
भगवान शिव को कपाली दोष
उन्होंने सरस्वती को उन्हें सौंपने का आग्रह किया, परंतु भगवान शिव के कहने पर सरस्वती आकाश की और चली गई, तो ब्रह्मा जी का पांचवां मुख ऊपर की ओर प्रकट हो गया। इस पर भगवान शिव ने क्रोध में आकर ब्रह्मा जी के पांचवें मुख को काट दिया। इस प्रकार ब्रह्मा जी पंचानन के स्थान पर चतुरानन हो गए। भगवान शिव पर ब्रह्म कपाली का दोष लग गया तथा सरस्वती इसी स्थान से नदी के रूप में परिवर्तित हो गई।