उड़ते हुए ही भोजन करता है छोटा प्रंटीकॉल
छोटा प्रंटीकॉल भारत में एक स्थानीय पक्षी है जो ये प्रवास भी करते है। भारत के अलावा यह पाकिस्तान नेपाल भूटान बांग्लादेश श्रीलंका चीन व थाईलैंड में भी पाया जाता है। ये कीट खाने वाले पक्षी होते है जो उड़ते हुए ही कीटों को अपनी खास प्रकार की चोंच में पकड़ कर खा जाते है।
परिदो की दुनिया: छोटा प्रंटीकॉल
परिवार: गलारियोलीडी
जाति: गलारियोला
प्रजाति: लैक्टिया
लेख संकलन: सुंदर सांभरिया, ईडेन गार्डन रेवाड़ी।
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छोटा प्रंटीकॉल भारत में एक स्थानीय पक्षी है, जो प्रवास भी करते हैं। भारत के अलावा यह पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, चीन व थाईलैंड में भी पाया जाता है। ये कीट खाने वाले पक्षी होते हैं, जो उड़ते हुए ही कीटों को अपनी खास प्रकार की चोंच में पकड़ कर खा जाते हैं। एक जैसे होते हैं नर व मादा
यह एक छोटा पक्षी होता है तथा इसका आकार 15-19 सेंटीमीटर तक होता है। इसका मुख आवरण हल्का स्लेटी मटियाला तथा सिर स्लेटी भूरा होता है। इसके पंख लंबे व चोंचदार होते है। पूंछ का पिछला भाग काले रंग का होता है, जो पूंछ के नीचे दिखाई देता है तथा इसका गोणपिच्छ सफेद रंग का होता है, जिस पर काले रंग का सिरा होता है। पंखों के बीच में एक सफेद रंग का बैंड होता है। इसके नीचे के पंखों का रंग काला होता है। इसकी पूंछ चिमटाकार दिखती है। चोंच छोटी व काले रंग की होती है परंतु आरंभिक हिस्सा लाल रंग का होता है। इसकी आंख की पुतली गहरी-भूरी तथा पंजे छोटे व स्लेटी भूरे होते है। इसकी आंख से चोंच तक काले रंग की धारी होती है। नर व मादा दोनों एक जैसे दिखते है। शाम के समय करते हैं भोजन
इन पक्षियों का भोजन टिड्डी, झिगुर, दीमक, शहद की मक्खी व अन्य कीट होते है। इन पक्षियों को वैडर श्रेणी में रखा गया है। ये सूर्यास्त के समय ऊपर की तरफ उड़ान भर कर अपने शिकार पर हमला करते है तथा झपट कर चोंच से शिकार को पकड़ लेते है। ये पक्षी एक छोटे समूह में बसेरा करते हैं। ये आमतौर पर नदियों या झीलों के किनारे रेतीली भूमि पर रहते है। हिमालय में ये 1800 मीटर की ऊंचाई तक नदियों के किनारे देखे जा सकते है। इन पक्षियों के प्रजनन का समय फरवरी से अप्रैल तक होता है। इस दौरान ये झीलों व नदियों के किनारे बालू मिट्टी या पत्थरों आदि में अपना घोंसला बनाते है। मादा दो से चार अंडे देती है। नर व मादा दोनों मिल कर चूजों को पालते हैं। भारत में इनकी संख्या में काफी कमी हो रही है, जिसका मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों से इनके घोंसले नष्ट होना है।