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जीतेगा भारत, हारेगा कोरोना: हाथों के हुनर से लिखी आत्मनिर्भर की परिभाषा, पढ़ें प्रेरणादायक स्टोरी

कुछ लोग समय बदलने का इंतजार करते हैं जबकि कुछ इंतजार करने की बजाय खुद समय के साथ कदमताल करना शुरू कर देते हैं।

By Prateek KumarEdited By: Published: Sun, 14 Jun 2020 04:38 PM (IST)Updated: Sun, 14 Jun 2020 04:38 PM (IST)
जीतेगा भारत, हारेगा कोरोना: हाथों के हुनर से लिखी आत्मनिर्भर की परिभाषा, पढ़ें प्रेरणादायक स्टोरी
जीतेगा भारत, हारेगा कोरोना: हाथों के हुनर से लिखी आत्मनिर्भर की परिभाषा, पढ़ें प्रेरणादायक स्टोरी

रेवाड़ी (महेश कुमार वैद्य)। कहावत है ईश्वर भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करते हैं। जिन लोगों में आत्मनिर्भर होने की ललक हाेेती है वह अपने हुनर से माटी को भी सोना बना लेते हैं। कोरोना संकट में जब लाखों लोग अपने भविष्य को लेकर चिंता में डूबे हुए हैं, तब कुछ लोग ऐसे हैं जो न केवल अपना बल्कि देश का भविष्य लिख रहे हैं। इन लोगों की ध्येय स्पष्ट है-हम आत्मनिर्भर होंगे तो ही देश आत्मनिर्भर बनेगा।

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माटी की कला से जुड़े पुश्‍तैनी व्यवसाय

कोरोना संकट के बीच रेवाड़ी के रमेश प्रजापति ने जहां अपने माटी कला से जुड़े पुश्तैनी व्यवसाय को बदलाव के साथ आगे बढ़ाया वहीं गड़रिया लोहार रमेश ने खुद को समय के साथ बदलकर पुश्तैनी व्यवसाय के साथ मिट्टी के बर्तनों की बिक्री शुरू कर दी। जमाने के साथ बदलाव का न केवल खुद को फायदा मिला, बल्कि दूसरे लोगों को भी जिंदादिली के साथ जीने की प्रेरणा मिली। दोनों ने ही हुनर से आत्मनिर्भर होने की परिभाषा लिखी है। पढ़ें और शेयर करें। रेवाड़ी से जागरण संवाददाता महेश कुमार वैद्य की रिपोर्ट-

पंचकुला व गुरुग्राम तक मिट्टी के गमलों की महक

यहां के कुतुबपुर मोहल्ला निवासी रमेश प्रजापत दो बेटों व दो बेटियों के पिता है। कुंभकार समाज के सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं। समाज ने अपनी एक संस्था के खजांची की जिम्मेदारी इन्हें दी हुई है। लॉकडाउन लागू हुआ तो मिट्टी गूंथने में दिन-रात पसीना बहाने वाले रमेश उर्फ खजांची को एक-दो दिन थोड़ी चिंता हुई, मगर जल्दी ही उन्होंने रास्ता तलाश कर लिया। रमेश बताते हैं कि मानसून के समय मिट्टी के गमलों की मांग अधिक रहती है। उन्हें यह जानकारी थी कि दूर-दूर से मिट्टी के गमलों के आर्डर मिल सकते हैं। उन्होंने बिना देरी किए मटके-सुराही के साथ-साथ गमलों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। क्षेत्र की सैकड़ों नर्सरियों से संपर्क साधा। आज उनके पास ग्राहकों की कमी नहीं है।

हजारों गमले किए तैयार

लॉकडाउन के दौरान मिट्टी के साथ किया गया परिश्रम उनके काम आ रहा है। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ऐसे हजारों गमले व मिट्टी के अन्य कलात्मक बर्तन बनाकर तैयार किए, जिनकी बाजार में मांग आनी थी। रमेश की किस्मत ने भी साथ दिया। मानसून पूर्व अच्छी बरसात होने से मिट्टी सोना बन रही है। इनके बनाए गमलों की मांग गुरुग्राम से लेकर पंचकुला तक बनी हुई है।

रमेश लोहार ने दिखाई जिंदादिली

कुछ लोग समय बदलने का इंतजार करते हैं, जबकि कुछ इंतजार करने की बजाय खुद समय के साथ कदमताल करना शुरू कर देते हैं। वर्षों से यहां के बावल रोड पर रह रहे गड़रिया लोहार रमेश ने यही किया। उन्होंने भीख नहीं मांगी। कोरोना संकट गहराया तो पैसे की तंगी भी हुई, मगर मंदी से कदम नहीं लड़खड़ाए। विपरीत माहौल में भी रमेश लोहार ने जीने की राह निकाली। अपने छोटे भाई व परिवार के अन्य सदस्यों को साथ लेकर अपने गाड़ा (लकड़ी की गाड़ी) व तंबू के सामने मिट्टी के बर्तन बेचना शुरू कर दिया। पुश्तैनी काम जारी रखा।

लॉकडाउन में नहीं हारी हिम्‍मत

लॉकडाउन के कारण ग्राहक नहीं थे, मगर मिट्टी के घड़ों की बिक्री से परिवार का गुजारा चल गया। रमेश कहते हैं। मांगण तै बढ़िया माटी का बर्तन बेच कै पेट भरणो सै। यह लाख टके की बात है। रमेश लोहार की धोंकनी अब भी चलती है, मगर हथौड़ी-छेनी चलाकर लोहे को विविध रूप देने वाला यह लोहार अब मिट्टी के कलात्मक व परंपरागत मटके-सुराही बेच रहा हैं। दोनों उदाहरण छोटे-छोटे हैं, मगर संदेश बड़े दे रहे हैं। देश को आत्मनिर्भर बनाना है तो खुद आत्मनिर्भर बनना होगा।

काम कोई भी छोटा नहीं होता

किसी भी देश की प्रगति तभी संभव है जब उस देश का हर नागरिक देश के लिए जीना सीख ले। कोई काम छोटा-बड़ा नहीं है। चाहे रमेश कुंभकार हो या रमेश लोहार, दोनों अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं। जिले में ऐसे कई लोग हैं, जिनकी मेहनत दूसरों के लिए प्रेरक बनी है। ऐसे सभी लोगों को धन्यवाद देता हूं।

डाॅ. बनवारीलाल, सहकारिता, अजा व पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री, हरियाणा

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