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Human Rights Day- ये कहानियां हमें बताती हैं, कोई हम सभी के लिए लड़ रहा है

मानवाधिकार दिवस पर पढ़ें सच्‍ची कहानियां। किस तरह कुछ लोग समाज के लोगों को अधिकार दिलाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। पानीपत के मोमिन मलिक तो पाकिस्‍तान तक पहुंच गए।

By Ravi DhawanEdited By: Published: Sun, 09 Dec 2018 06:12 PM (IST)Updated: Mon, 10 Dec 2018 11:10 AM (IST)
Human Rights Day- ये कहानियां हमें बताती हैं, कोई हम सभी के लिए लड़ रहा है
Human Rights Day- ये कहानियां हमें बताती हैं, कोई हम सभी के लिए लड़ रहा है

पानीपत, [जागरण स्‍पेशल] । आज मानवाधिकार दिवस है। आपको कुछ कहानियों, किरदारों से मिलवाते हैं, जो इंसानियत के लिए लड़ते हैं। जरूरत पड़ने पर देश की सीमाओं को भी पार कर दूसरे देश में पहुंच जाते हैं। इनके लिए यह मायने नहीं रखता कि इंसान इस देश का या दूसरे देश का। इनके लिए सबसे पहले है इंसानियत। पढ़ें ये विशेष्‍ा रिपोर्ट।

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पानीपत के मोमिन मलिक पहुंच गए पाकिस्‍तान
एडवोकेट मोमीन मलिक, हरियाणा ही नहीं अपितू देश भर में कुछ विशिष्ठ केसों की पैरवी के लिए जाने जाते हैं। गलती से सीमा पार कर पाकिस्तान पहुंची मूक-बधिर गीता को भारत लाने, ऐसे ही मामले में रमजान को बांग्लादेश भिजवाने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में केस लड़ते हुए पडोसी देशों में भी अपने फैन बना लिए हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस मामले में भी पीडि़तों का केस लड़ रहे हैं।

पाकिस्तान में गीता से मिले तो दिल पसीजा 
मूल रूप से भोपाल की निवासी मूक-बधिर गीता 10 साल की आयु में भटककर पाकिस्तान में प्रवेश कर गई थी। समझौता एक्सप्रेस बलास्ट केस को लेकर पीडि़त परिवारों से बात करने के लिए वर्ष 2010 में एडवोकेट मोमीन मलिक पाकिस्तान गए थे। वहां गीता से भी मिले और उसे भारत लाने की ठान ली। वर्ष 2012 में उन्होंने पाक के तत्कालीन केंद्रीय मानवाधिकार मंत्री अंसार बर्नी से मुलाकात कर गीता को भारत भेजने का अनुरोध किया था। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों सहित तमाम अधिकारियों से लगातार संपर्क कर वर्ष 2015-16 में उसे भारत लाने में कामयाब रहे। इतना ही नहीं, लड़की को उसके शहर भोपाल पहुंचाने में भी महती भूमिका निभाई।

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गलती से भारत आ गया था रमजान, मोमिन ने दिलाया घर

रमजान पुत्र मोहम्मद काजोल अपनी मां जाहिदा के साथ पाकिस्तान के कराची में रहता था। मोहम्मद काजोल ने पत्नी को तलाक दे दिया था और बेटे रमजान का लेकर बांग्लादेश आ गया था। यहां आकर उसे दूसरी शादी कर ली। इससे परेशान बांग्लादेश से भागकर भारत में आ गया। इसके बाद वह दिल्ली से भोपाल चला गया। वर्ष 2012 में जीआरपी भोपाल ने उसे पकड़ लिया था और बेसहारा मानकर शेल्टर होम में भेज दिया था। आधार कार्ड बनाते वक्त उसका नाम, पिता का नाम और पता पूछा गया तो उसने कराची पाकिस्तान बताया था। रमजान का वीडियो वायरल होने पर पाकिस्तान के वकीलों ने एडवोकेट मोमीन मलिक को जानकारी दी। इस मामले में भी मलिक ने बांग्लादेश दूतावास के अधिकारियों सहित देश के कई बड़े अधिकारियों और नेताओं से मिले थे। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में भी पैरवी की और 2016 में उसे बांग्लादेश भिजवाने में कामयाब रहे।

ब्लास्ट केस में पीडि़त परिवारों की पैरवी 
भारत-पाकिस्तान के बीच सप्ताह में दो दिन चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में 18 फरवरी 2007 में बम धमाका हुआ था। इसमें 68 लोगों की मौत हो गई थी और 12 लोग घायल हुए थे। ट्रेन दिल्ली से लाहौर जा रही थी। धमाके में जान गवाने वालों में अधिकतर पाकिस्तानी नागरिक थे। एडवोकेट मोमीन मलिक ने बताया कि वे पीडि़त परिवारों को न्याय और मुआवजा दिलाने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सहित कोर्ट में भी केस लड़ रहे हैं।

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अधिकार दिलाना विरेंद्र ने बनाया मकसद
दूसरे किरदान हैं यमुनानगर की की रणजीत कॉलोनी कैंप निवासी विरेंद्र कुमार। पेशे से बिजनेसमैन हैं। लोगों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं। लोगों को उनके अधिकार दिलाना उन्होंने अपने जीवन का मकसद बना लिया है। चाहे किसी परिवार में पति-पत्नी की लड़ाई हो या फिर सास-बहू का झगड़ा। कोई किसी कमजोर व्यक्ति को दबाने की कोशिश ही क्यों न कर रहा हो। विरेंद्र ने ऐसे पीडि़तों को उनका हक व न्याय दिलाने में हमेशा आगे रहते हैं। अभी तक दर्जनों लोगों की मदद कर चुके हैं।

सोशल वर्क करते जुड़े मानवाधिकार मोर्चा से
विरेंद्र कुमार के पास सात साल से वीडियोकॉन कंपनी की सर्विस एजेंसी है। वे शिव सेना से भी जुड़े रहे। लोगों की मदद करने का काम ओर तेजी से हो सके इसके लिए वे भारतीय मानवाधिकार मोर्चा से जुड़े रहे। दो साल तक वे मोर्चा के जिला प्रधान रहे। उनके कार्य करने की लगन को देखते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष अक्षय मुनी ने उन्हें मोर्चा के राज्य प्रधान की जिम्मेदारी दी, जिसे तीन माह से वे बखूबी निभा रहे हैं। लोगों को उनके अधिकार दिलाने के लिए चाहे अपनी जेब से ही पैसा क्यों न खर्च करना पड़े। इससे भी विरेंद्र पीछे नहीं हटते।

अब मां-बेटी को पिता से मिलाने का कर रहे प्रयास
अब उनके द्वारा डेढ़ साल की बच्ची व उसकी मां को उनका हक दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। काफी हद तक इसमें कामयाबी भी मिल चुकी है। विरेंद्र कुमार ने बताया कि कैंप निवासी एक युवती की शादी वर्ष 2014 में पंजाब में हुई थी। शादी के बाद पति-पत्नी में सबकुछ ठीक चल रहा था। फरवरी 2017 में युवती ने एक बच्ची को जन्म दिया। घर में बेटी होने से उसके पति का मन बदल गया। वह अपनी पत्नी व बच्ची पर ध्यान नहीं देता। हालात यहां तक बन गए कि बीमार होने पर बच्ची को दवाई तक नहीं दिलाई जाती। अक्टूबर 2017 में वह अपनी पत्नी व बच्ची को यह कहकर उसके मायके में छोड़ गया कि कुछ दिन बाद दोनों को घर ले जाएगा। परंतु चार माह तक उसने अपनी पत्नी व बच्ची को देखा तक नहीं। विरेंद्र ने बताया कि युवती के भाई ने उन्हें सारी बात से अवगत करवाया। तब उन्होंने ठाना कि किसी तरह युवती का घर बसाना है। उन्होंने केस के कागजात तैयार करवाए और अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को इससे अवगत करवाया। इस बारे में दिल्ली में महिला आयोग व राज्य महिला आयोग पंचकूला को पत्र भेजे गए। राज्य महिला आयोग द्वारा इस केस की अब सुनवाई की जा रही है। वहीं महिला आयोग दिल्ली ने भी यमुनानगर पुलिस को पत्र लिखकर महिला को जल्द न्याय दिलाने को कहा है। इसी तरह पति की मौत के बाद महिला ने अपने सास-ससुर दहेज प्रताडऩा का आरोप लगा दिया। शिकायत मिलने पर जब इसकी जांच की गई तो पता चला कि महिला ने जायदाद हड़पने के लिए ये शिकायत दी थी। इस केस का निपटारा करते हुए दंपती को न्याय दिलाने का काम किया।

जीवन वही, जो दूसरों के काम आए : विरेंद्र
विरेंद्र कुमार का कहना है कि समाज में अपने व परिवार के लिए तो सभी काम करते हैं लेकिन हमें जरूरतमंदों के लिए भी कुछ काम करना चाहिए। यदि हमारी वजह से किसी को न्याय मिलता है तो इससे बड़ी बात ओर क्या हो सकती है। जिसे न्याय मिलता है वो कम से कम सदा सुखी व खुश रहने का आशीर्वाद तो देता ही है। यही सोच रखते हुए वे समाज सेवा से जुड़े हैं।

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1992 से मजूदरों के हकों की आवाज उठा रहे कामरेड प्रेम चंद
तीसरे किरदार हैं कामरेड प्रेम चंद।  1992 में कामरेड प्रेम चंद की आंखों के सामने जब एक घटना घटी तो वे कब मानवाधिकार के रास्ते पर चल निकले उन्हें खुद मालूम नहीं है। वे बताते हैं कि 1992 में वह अंबाला रोड पर अमित फाउंड्री में बतौर मैकेनिक काम करते थे। साथ ही लगती हरियाणा फाउंड्री में बड़ा धमाका हुआ। बलास्ट में चार मजदूर गंभीर रुप से व करीब 10 अन्य घायल हो गए थे। फैक्ट्री मालिक ने सब मजदूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया था। घटना का पता चला वे बहुत आहत हुए और इन मजदूरों की लड़ाई लडऩे का फैसला लिया। लेबर कोर्ट में करीब दो साल तक केस चला, लेकिन जीत हुई और सबको मुआवजा दिलवाया। साथ ही निशुल्क इलाज भी करवाया। इस दौरान उन्होंने मजदूर संग्राम समिति का गठन कर लिया था। धीरे धीरे समिति के माध्यम से वे मजदूरों के मसीहा बन गए और निरंतर उनके हकों की लड़ाई लडऩे लगे।

लेबरल और निशु फाउंड्री से दिलवाई मजदूरी
1993 में ही लेबरल व निशु फाउंड्री मजदूरों को पांच-पांच महीनों की मजदूरी नहीं दे रही थी। मालिक ने मजदूरी देने से इनकार कर दिया था। समिति के बैनर तले पांच मजदूरों ने मिलकर पांच दिनों तक धरना दिया। धरने को राजनीतिक व अन्य संगठनों का समर्थन मिला। जिसके आगे फैक्ट्री मालिक को झुकना पड़ा। मजदूरों को मजदूरी देने के साथ ही कुछ हटाए गए कर्मियों को भी काम पर लेना पड़ा।

मंडी में मजदूरों को संगठित कर खड़ा किया आंदोलन
1993-94 में मंडी में चाय की दुकान के दौरान पता चला कि मंडी में पिछले कई वर्षों से मजदूरी के रेट नहीं बढ़े हैं। उनको इन मुद्दों पर जागरूक कर संगठित कर तीन दिन तक पूरे हरियाणा में हड़ताल की। मार्केटिंग बोर्ड को मजबूर होकर रेट बढ़ाने पड़े और आंदोलन सफल हुआ।

21 वर्ष के थे जब निकल पड़े थे संघर्ष के लिए
47 वर्षीय प्रेम तब से आज तक गरीब व मजदूरों के हकों के लिए लड़ रहे हैं। आज भी वे अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के पदाधिकारी के रुप में काम कर रहे हैं। उद्देश्य एक ही कोई गरीब न्याय से वंचित ना रहे। अब तक वे हजारों मजदूरों को उनका हक दिलवा चुका हैं। कितने ही मजदूर जो बंधक बना लिए गए थे को छुड़वाया। तीन बार युवा संगठन के प्रधान रहे और युवाओं के हकों के लिए लड़ाई लड़ी। मारुति मजदूरों के लिए 74 दिन तक जेल में रहे। इसके अलावा शराब के ठेकों को बंद करवाना, गंदे पानी की निकासी, सड़कों का निर्माण करवाने के लिए भी लोगों को संगठित कर जीत हासिल की।


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