सियासत का दबाव और संयम दांव..इसी से खेला पूरा नगर निगम चुनाव
जो भी पार्षद आता अगर पूछने की कोशिश करता तो उसे कह दिया जाता संयम रखें। सब बता दिया जाएगा। यानी पार्षदों के साथ संयम दांव चला गया। काफी देर तक पार्षद बैठे रहे।
जागरण संवाददाता, पानीपत : नगर निगम के सीनियर डिप्टी मेयर, डिप्टी मेयर के चुनाव में सियासत के दो दांव बेहद सधे हुए तरीके से खेले गए। दबाव और संयम दांव। सुबह से दोपहर होते-होते इन्हीं के इर्द-गिर्द राजनीति चलती रही। आखिरकार इन्हीं दांव की बदौलत दुष्यंत भट्ट और रवींद्र फुले के लिए मैदान जीत लिया गया।
रेस्ट हाउस में पहले संयम
रेस्ट हाउस में पहले संयम दांव चला गया। पार्षदों को एक कमरे में बैठाया। इन्हें बताया ही नहीं गया कि किसके नाम पर सहमति बनानी है। जो भी पार्षद आता, अगर पूछने की कोशिश करता तो उसे कह दिया जाता संयम रखें। सब बता दिया जाएगा। यानी, पार्षदों के साथ संयम दांव चला गया। काफी देर तक पार्षद बैठे रहे। इसके बाद परिवहन मंत्री मूलचंद शर्मा, सांसद संजय भाटिया और विधायक अलग कमरे में बैठे। तब पार्षदों को लगा कि अब रेस्ट हाउस में ही उन्हें नाम बता दिया जाएगा।..लेकिन संयम दांव इतनी जल्दी कहां खत्म होने वाला था। शुरू हुआ दबाव दांव
काफी देर तक भी जब पार्षदों को कुछ नहीं बताया गया तो संयम खत्म होने के आसार दिखने लगे।मंत्री से लेकर सांसद को जब लगा कि पार्षद अब हाथ से निकल सकते हैं, उसी समय दबाव दांव चला गया। मंत्री मूलचंद शर्मा ने कहा कि संगठन से अलग नहीं होना चाहिए। जो संगठन से बाहर गया, उसे पछताना ही पड़ता है। यानी सीधे सीधे कह दिया, जो उनका फैसला होगा मानना होगा। सरकार के साथ मिलकर चलो। अगर उनके मन के नेता का नाम नहीं आया तो किसी का विरोध नहीं चलेगा। यह एक मनोविज्ञानी दबाव दांव था। इसके बाद सभी को लघु सचिवालय में चुनावी बैठक में जाने के निर्देश हुए। सबसे आखिरी..मनोविज्ञानी दांव
लोकेश नांगरू, अशोक कटारिया, रवींद्र भाटिया और संजीव दहिया। ये चारों पद के दावेदार थे। इन्हीं चारों को आगे बुलाकर लिफाफा थमाया गया। कहा गया कि आप ही घोषणा करें कि पार्टी ने किसे चुना है। धड़कते दिल और कांपते हाथ से लिफाफे से पर्ची निकाली। जैसे ही दुष्यंत भट्ट और रवींद्र फुले का नाम लिया गया, नांगरू और अशोक कटारिया के चेहरों के भाव बदल गए। पर तब तक पार्टी के रणनीतिकार अपना काम कर चुके थे। न तो कोई बोल सका, न बोलने की स्थिति में था। आखिरकार सियासत जीत गई..चर्चाएं हार गईं।