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पानीपत का एक ऐसा गांव, जहां जमीन से निकल रहे चांदी के सिक्‍के, पुरातत्‍व विभाग भी हैरान

पानीपत में जमीन से चांदी के सिक्‍के मिल रहे हैं। पानीपत के पट्टीकल्याणा गांव में खोदाई में मिले चांदी के सिक्के। ये सिक्‍के अंग्रेजी हुकूमत के समय के हैं। लोग इन्‍हें घर में ले गए। बाद में पुरातत्‍व विभाग की टीम ने तलाशे।

By Anurag ShuklaEdited By: Published: Sat, 29 Jan 2022 09:47 AM (IST)Updated: Sat, 29 Jan 2022 09:47 AM (IST)
पानीपत का एक ऐसा गांव, जहां जमीन से निकल रहे चांदी के सिक्‍के, पुरातत्‍व विभाग भी हैरान
पानीपत में जेसीबी खुदाई में चांदी के सिक्‍के मिले।

समालखा (पानीपत)। पानीपत का एक ऐसा गांव जहां जेसीबी से खोदाई में चांदी के सिक्के निकल रहे हैं। दो सप्ताह के दौरान दो बार में करीब 232 सिक्के निकले हैं। जिले में यह चर्चा का विषय बना है। पुलिस ने बड़ी मशक्कत से पहली बार के 45 सिक्के लोगों के घरों से बटोर कर पुरातत्व विभाग को दिए हैं। सिक्के 1865 से 85 के बीच के हैं। पहले दिन सिक्के को लेकर लोगों में अफरातफरी मच गई थी। भनक लगते ही मौके पर पहुंच लोग प्लाट में बिखरे सिक्के को लेकर घर चले गए। सिक्के के साथ घड़े भी मिले हैं, जो जमीन में दबे थे।

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पानीपत ऐतिहासिक जिला है। यहां मुगलों और अंग्रेजों का शासन रहा है। पानीपत के तीनों युद्धकालीन तलवार, बरछी, भाले व अन्य सामग्री यहां के संग्रहालय की धरोहर है, जो खोदाई के दौरान ही निकले हैं। जिससे जिले के गांव पट्टीकल्याणा में चांदी के सिक्के निकलना कोई अचरज की बात नहीं है। यहां एक पुराने मकान की खोदाई के दौरान ब्रिटिश हुकूमत कालीन चांदी के सिक्के मिले हैं, जिस पर महारानी एलिजाबेथ की फोटो है। मकान मालिक त्रिलोक चंद अग्रवाल आर्य समाजी हैं।

वे प्लाट पर वैदिक मंदिर का निर्माण करने जा रहे हैं, जिसकी खोदाई अब पूरी हो गई है। 12 और 26 जनवरी को दो बार खोदाई के दौरान घड़े में सिक्के मिलने से पुलिस के साथ प्रशासनिक अधिकारियों के कान भी खड़े हैं। लोगों को वहां से और कीमती धातु निकलने की उम्मीद है। चंडीगढ़ से आए पुरात्व अधिकारी ने भी जगह का मुआयना किया है।

1965 के बाद खाली था मकान

मालिक त्रिलोक चंद अग्रवाल ने बताया कि उनका परिवार अग्रोहा, जिला हिसार के गांव माहिम के रहने वाले हैं। 1857 के दौरान उसके पूर्वज यहां आकर बसे थे। उसके दादा तुलाराम और भगवान दास जमींदार थे। उसके ताऊ चिरंजी लाल अग्रवाल भी ब्रिटिश हुकूमत में पटवारी रहे। 1955 में उसके पिता भजन लाल और बड़े भाई दुलीचंद व जगदीश चंद व्यापार के तलाश में मुंबई गए और वहीं कारोबार शुरू किया। सबसे अंत में छोटा भाई लाल चंद भी 1965 में मुंबई चला गया। हालांकि वे हर साल पत्नी बिरमी अग्रवाल के साथ यहां आते थे। परिवार के आर्य समाजी होने से ही यहां वैदिक मंदिर बनवाने का मन बनाया। उन्होंने कहा कि उन्हें घर में सिक्के दबे होने का आभास जरूर था।


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