गुरुजी की जिद बन गई मिसाल, ढहती इमारत का परचम किया बुलंद
आजादी से पहले बने स्कूल को मुख्याध्यापक ने नया रूप दिया। 1943 में बने भवन की दीवारें जर्जर हो चुकी थीं। शहर के लोगों से आर्थिक मदद व अपने वेतन से तीन कमरे बनवाए।
पानीपत/यमुनानगर, [नितिन शर्मा]। शिक्षक का धर्म बच्चों को संस्कार देना ही नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है। इस कसौटी पर यमुनानगर के शिक्षक जिले सिंह यदि खरा उतर रहे हैं, तो इसके पीछे उनके वे कार्य हैं, जिनके कारण उनका नाम शिक्षा विभाग में अब मिसाल के तौर पर लिया जाता है। जिस सरकारी स्कूल के भवन को खुद सरकार ने अनसेफ घोषित कर था, उसी स्कूल में बने कमरों और वहां की दरो-दीवार की खूबसूरती दूसरों के लिए प्रेरणा का सबब बन गई हैं। इस लक्ष्य को पाने के लिए जिले सिंह ने दूसरों से मदद मांगने में संकोच नहीं किया तो साथ ही खुद के वेतन की भी परवाह नहीं की।
यमुनानगर में रेलवे स्टेशन चौक के नजदीक राजकीय मिडिल स्कूल का भवन आजादी से पहले वर्ष 1943 में बना। हालांकि वक्त के साथ इसकी दीवारें जीर्ण क्षीण अवस्था में पहुंच चुकी थीं। कभी बच्चों से गुलजार रहने वाले इस स्कूल में छात्रों की संख्या भी महज 17 ही बची थी। इसी बीच साढ़े तीन साल पहले महेंद्रगढ़ जिले के जिले सिंह ने बतौर मुख्याध्यापक यहां का कार्यभार संभाला। आते ही स्कूल को संजीवनी दे दी। इमारत के जीर्णोद्धार के लिए उन्होंने शहर के लोगों से आर्थिक मदद ली, साथ ही अपने वेतन के पैसे साथ मिलाए। करीब दस लाख रुपये खर्चकर स्कूल में तीन नए कमरों का निर्माण कराया। इसके बाद दो कमरे सरकार ने बनवाए।
सरकार ने किया था अनसेफ घोषित
सरकार ने इस स्कूल के भवन को अनसेफ घोषित किया था। इसके बाद भी यहां बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। भवन के निर्माण की मांग लेकर मुख्य अध्यापक जिले सिंह ने विभाग के उच्चाधिकारियों को कई बार पत्र लिखे, मगर इस पर कोई संतोषजनक कार्रवाई विभाग की ओर से नहीं हुई। बार-बार के प्रयास के बाद भी निराशा ही हाथ लगी।
फिर खुद निकले संपर्क करने
कोई सफलता नहीं मिली तो जिले सिंह खुद ही शहर में निकले। सबसे पहले संपर्क आयकर विभाग के वरिष्ठ अधिकारी से मुलाकात की। उनकी ओर से दो लाख रुपये की मदद मिली तो उनका हौसला बढ़ा। इन्हीं पैसों में खुद के वेतन से भी कुछ रुपये मिलाए। इसके बाद जर्जर दीवारों को नया रूप दिया।
प्लाइवुड संचालक से सहयोग ले बनवा दिए डेस्क
स्कूल में बच्चों के बैठने की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं थी। यहां के बच्चे पहले नीचे फर्श पर बैठकर ही शिक्षा ग्रहण करते थे। यहां टाट-पट्टी का भी अभाव था। जिले सिंह ने ठान लिया था कि बच्चों को डेस्क मुहैया करानी है। इसके लिए प्लाइवुड संचालक से प्लाई के कट पीस का सहयोग लिया। अपने खर्च पर ही डेस्क और बेंच बनवाए।
बच्चों के लिए हर घर गए
स्कूल बंद न हो जाए इसके लिए जिले सिंह आसपास के घरों में गए। अभिभावकों से वायदा किया कि उनके बच्चों के नंबर अच्छे आएंगे। इसका नतीजा यह रहा कि इस समय इस स्कूल में 150 से ज्यादा बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। यह स्कूल पहले सिर्फ प्राइमरी तक था। जिले सिंह ने प्रयास कर मिडिल कराया।