Mahashivaratri special : भगवान श्रीकृष्ण की शिव भक्ति का गवाह है श्री ग्यारह रुद्री मंदिर
वैसे तो कैथल और कुरुक्षेत्र मंदिर में रोजाना ही सैकड़ों भक्त पूजा के लिए पहुंचते हैं लेकिन महाशिवरात्रि पर हरियाणा राजस्थान लुधियाना व दिल्ली से लाखों भक्त पूजा करने आते हैं।
पानीपत, जेएनएन। आज महाशिवरात्रि पर्व है। आइये, आपको कुरुक्षेत्र और कैथल के खास शिव मंदिरों के बारे में बताते हैं। कहते हैं कि एक मंदिर की स्थापना भगवान श्रीकृष्ण ने की तो दूसरे मंदिर की स्थापना दो ऋषियों की भिड़ंत के बाद हुई। अब यहां लाखों श्रद्धालु यहां हर वर्ष पहुंचते हैं।
छोटी काशी के नाम से प्रसिद्ध है कैथल। यहां महाभारतकालीन श्री ग्यारह रुद्री शिव मंदिर स्थापित है। इस मंदिर की स्थापना भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद की थी। पांडवों ने कौरवों को हराकर विजय प्राप्त की थी। इस युद्ध में दोनों ओर से लाखों सैनिक मारे गए थे। युद्ध में मारे गए सैनिकों की आत्मा की शांति के लिए भगवान कृष्ण ने कैथल में ग्यारह रुद्रों की स्थापना की थी। स्थापना करने के बाद पांडवों से यहां पूजा अर्चना करवाई थी। मंदिर के मुख्य पुजारी का मानना है कि उस दौरान स्थापित किए गए ग्यारह रुद्र आज भी मंदिर में स्थापित हैं, जिनकी पूजा अर्चना करने के लिए पूरे देश से श्रद्धालु यहां आते हैं। इसके अलावा भी मंदिर में भगवान शिव की बड़ी प्रतिमा व रथ में अजरुन को उपदेश देते हुए भगवान कृष्ण का चित्र बना हुआ है।
ये है ग्यारह रुद्रों का इतिहास
इन ग्यारह रुद्रों की उत्पत्ति काशी में हुई थी। कश्यप ऋषि भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे। कश्यप ऋषि ने भगवान शिव की तपस्या की थी और वरदान मांगा था कि भगवान शिव उनके पुत्र के रूप में जन्म लें। भगवान ने उनकी मनोकामना को पूर्ण किया था और सुरभि यानी गाय माता के पेट से 11 रूपों में जन्म लिया, इसलिए इन्हें सुरभि पुत्र भी कहते हैं। काशी में उत्पत्ति के बाद उन्हें कैथल में भगवान कृष्ण ने स्थापित किया था। माना जाता है कि कैथल के अलावा पूरे देश में कहीं भी ग्यारह रुद्र स्थापित नहीं हैं। ग्यारह रुद्र के नाम हैं, कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिबरुध्न्य, शंभु, चंड व भव हैं।
हर अभिषेक की अपनी एक आस्था
ग्यारह रुद्रों पर दूध और मिश्री के साथ अभिषेक करने पर विद्या की प्राप्ति होती है। शहद के साथ अभिषेक करने पर विजय की प्राप्ति होती है। घी के साथ अभिषेक करने से बल की प्राप्ति होती है। पंचामृत से अभिषेक करने की आस्था है। गंगाजल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
त्योहार पर यह रहता है मंदिर में विशेष
इस बार चार मार्च को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जा रहा है। इस मंदिर में 50वां महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाएगा। हर साल मंदिर में शिव कथा का आयोजन किया जाता है। त्योहार के दिन मंदिर में विशाल भंडारा लगाया जाता है। त्योहार से कुछ दिन पहले ही मंदिर को रंगीन लाइटों से सजाया जाता है। मंदिर में चार पहर की पूजा की जाती है। दूर-दूर से भक्त पूजा करने के लिए मंदिर में आते हैं।
देखरेख के लिए बनाई गई है कमेटी
मंदिर की देखरेख के लिए श्री ग्यारह रुद्री शिव मंदिर कमेटी बनाई गई है। इस समय मांगे राम खुरानिया को कमेटी का प्रधान बनाया गया है। समय-समय पर मंदिर को भव्य रूप दिया जाता है और निर्माण कार्य भी करवाए जाते हैं। मंदिर का लेखा जोखा कमेटी के हाथ में ही होता है। कमेटी में कुल 116 सदस्यों को शामिल किया गया है। मांगे राम का कहना है कि मंदिर के प्रति आस्था का ही असर है यहां हर वर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं।
वर्षो बाद बना विशेष संयोग
मंदिर के मुख्य पुजारी मुनेंद्र मिश्र ने बताया कि यह मंदिर महाभारतकालीन है। इस बार चार मार्च को महाशिवरात्रि का त्योहार मनाया जा रहा है। इस बार कई सालों में यह संयोग बना है कि पर्व का दिन सोमवार है। भगवान शिव और माता पार्वती के मिलन को ही शिवरात्रि कहा गया है। पर्व को लेकर मंदिर में तैयारियां शुरू कर दी गई हैं।
धरोहर को देंगे पहचान
कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड के सदस्य एवं पार्षद गोपाल सैनी ने बताया कि कैथल में इस तरह के कई महाभारतकालीन मंदिर एवं उनका इतिहास है। आने वाले समय में कैथल की हर प्राचीन धरोहर को अलग पहचान दी जाएगी। कैथल को एक पर्यटक क्षेत्र बनाया जाएगा।
अरुणाय स्थित सगमेश्वर महादेव का मंदिर
सगमेश्वर महादेव का मंदिर पिहोवा से चार किलोमीटर दूर गांव अरुणाय में स्थित है। महाशिवरात्रि पर लाखों श्रद्धालु शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। वहीं हर महीने त्रयोदशी पर मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगता है। सावन माह में दिन भर श्रद्धालु मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। कहते हैं कि यह भगवान शिव का एक ऐसा मंदिर है, जहां वर्ष में एक बार नाग-नागिन का जोड़ा प्रकट होता है। यह किसी को बिना नुकसान पहुंचाए भगवान शिव की परिक्रमा कर चला जाता है। श्रद्धालु इसे भगवान का चमत्कार मानते हैं। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के सबसे प्राचीन मंदिर में से एक इस मंदिर की मान्यता है कि यहां देवी सरस्वती ने श्रप से मुक्त होने के लिए भगवान शिव की आराधना की थी। तभी इस शिवलिंग की स्थापना हुई थी।
इस मंदिर का इतिहास
श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के सचिव महंत वासुदेव गिरी ने बताया कि मंदिर के विषय में एक लोक कथा है कि ऋषि वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र में जब अपनी श्रेष्ठता साबित करने की जंग हुई, तब ऋषि विश्वामित्र ने मां सरस्वती की सहायता से बहाकर लाए गए ऋषि वशिष्ठ को मारने के लिए शस्त्र उठाया, तभी मां सरस्वती ऋषि विशिष्ट को वापस बहा कर ले गई। तब ऋषि विश्वामित्र ने सरस्वती को रक्त व पींप सहित बहने का श्रप दिया। इससे मुक्ति पाने के लिए सरस्वती ने भगवान शंकर की तपस्या की और भगवान शंकर के आशीर्वाद से प्रेरित 88 हजार ऋषियों ने यज्ञ द्वारा अरुणा नदी व सरस्वती का संगम कराया। तब इस श्रप से सरस्वती को मुक्ति मिली। नदियों के संगम से भोले नाथ संगमेश्वर महादेव के नाम से विश्व में प्रसिद्ध हुए।
मंदिरों में पूजा का महत्व
महंत वासुदेव गिरी ने बताया कि श्री संगमेश्वर महादेव मंदिर में स्वयंभू शिवलिंग है, जोकि ऋषि मुनियों की कठोर तपस्या के फल स्वरूप धरती से निकले हैं। स्वयंभू शिवलिंग जल्दी ही प्रसन्न होते हैं।
श्रद्धापूर्ण पूजा से बनते काम
श्रद्धालुओं का कहना है कि वह पिछले 33 साल से मंदिर से जुड़ा है। रोजाना वे मंदिर में पूजा करने के बाद ही दिन की शुरुआत करते हैं। श्रद्धालुओं का कहना है कि सावन माह में स्वयंभू शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। जो भी श्रद्धालु यहां पर पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करता हैं, उसको सफलता मिलती है।
संगम पर है मंदिर
यह तीर्थ अरुणा व सरस्वती के संगम पर स्थित है। मंदिर के पास से सरस्वती नदी होकर निकलती है। आसपास के कई प्रदेशों में मंदिर की बड़ी मान्यता है। यहां महाशिवरात्रि के मौके पर वार्षिक मेला लगता है। मान्यता है कि यहां शिवलिंग पर जलाभिषेक व पूजन करवाने और यहां स्थित बेल वृक्ष पर धागा बांधने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। रोजाना मंदिर में करीब सवा लाख बेल पत्र शिवलिंग पर चढ़ते हैं। कई प्रकार के द्रव्य जैसे दूध, शहद, गिलोये, बेल का रस व गंगाजल आदि से अखंड अभिषेक किया जाता है।