अब नहीं दिखते कोल्हू के बैल
तेल के कोल्हू की परंपरा वैदिककाल से चली आ रही है।
तेल के कोल्हू की परंपरा वैदिककाल से चली आ रही है। यजुर्वेद में तिल का अनेक धान्यों के साथ उल्लेख मिलता है। इनमें जौ, उड़द, तिल आदि का ब्योरा में भी प्राप्त होता है। यजुर्वेद के अनुसार -व्रीहयश्च में यवाश्च में माषायच मे तिलाश्च में.. यज्ञेन कल्पन्ताम। .. यजुर्वेद 28/12, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि धान्य, जौ, उड़द, तिल आदि हमें यज्ञ के (उत्तम राज्य प्रबंध, व्यवस्था, राजा-प्रजा के सम्मिलित यत्न और कृषि के) द्वारा प्राप्त हों। ..(जयदेव-भाषाभाष्ये)। साफ है, तिलों की खेती वैदिककाल से ही शुरू हो गई थी। प्राकृत भाषा में तिलों से निकाले जाने वाले तेल को तिलेल्ले (तिलों के तेल) के नाम से जाना जाता है। जिस यंत्र तथा राछ से तेल निकाला जाता है, उसे हरियाणवी में घाणी कहा जाता है, तेल की घाणी जिसका मूल अभिप्राय: पीड़न करने वाली अर्थात दबाकर तेल निकालने वाली प्रक्रिया से होता है।। 'घाणी' में पीसकर तेल निकालने का धंधा करने वाले व्यक्ति को हरियाणवी लोकजीवन में तेल्ली की संज्ञा दी गई है। तेल निकालने के लिए घाणी में एक बार में लगभग दस सेर की घाणी डाली जाती है, जिसे माल डालणा भी कहा जाता है। अधकचरे तिलों को कान्या (काणे) के नाम से भी जाना जाता है। कान्यों से तेल निकलने को जंगल की संज्ञा दी गई है, अनेक स्थानों पर इसे गाद भी कहा जाता है। तिलों के अलावा सरसों, अलसी, निम्बोली, अरंड, तोडिया आदि का तेल भी घाणी में निकालने की परम्परा रही है। सरसों का तेल निकालने के लिए सरसों को पहले दलणा तथा धूप में सूखाना पड़ता है, इसके अतिरिक्त दालों का तेल भी काट की घाणी में निकाला जाता है। एक घाणी तिलों में साढ़े तीन सेर या चार सेर तक तेल निकलता है, तिलों में दस सेर तिलों को एक घाणी का नाम दिया गया है। तेल के साथ-साथ जो कुछ घाणी में बचता है उसे खल कहते हैं। खल पशुओं का आहार है। लोकजीवन में तेल्ली तथा तेल से जुड़ी हुई अनेकों कहावतें, मुहावरे, पहेलिया, गीत, लोककथाएं तथा उक्तिया प्रचलित हैं। इसकी बानगी रागनी की इन पंक्तियों में देखिए, जिसमें नव-यौवना अपनी मा से तेल्ली से स्योड़ तथा स्योड़िया भरने की बात कुछ इस प्रकार कहती है - 'उस तेल्ली के नै कह दिए मा मेरा स्योड़ स्योड़िया भर दे, जो किमै लेणा देणा सै, सब बाध जूड़ का धरदे।' खल की तुलना व्यक्ति जीवन भोगने पर बुढ़ापे के माध्यम से की है। 'तेल्लण से क्या धोब्बण घाट, इसका मूस्सल उसका लाट', उक्ति के माध्यम से तेल्ल्ण तथा धोब्बण दोनों एक से विकट हैं, कोई किसी से कम नहीं है। इतना ही नहीं, उक्ति - 'धर चल सिर कोल्हू की लाट, मतना चालै कुचालक बाट' के माध्यम से सिर पर कोल्हू की लाट रखकर भले ही चलें, परंतु बुरे व्यक्ति की संगति नहीं करनी चाहिए, का संदेश देने का प्रयास किया गया है। हरियाणवी लोकजीवन में 'देती खल ना खादी, कोल्हू ना चाट्टण जादी', उक्ति के माध्यम से पास की चीज की महत्ता नहीं है, अपितु दूर जाकर चाहे कम महत्ता की चीज मिले, उसे भी व्यक्ति स्वीकार करता है, का संदेश दिया गया है। 'घाणी घस्सै बारह कोस बसै', 'तेल्ली नै तेल की अर मुसद्दी नै खल़ की'। आधुनिकता की चकाचौंध में तेल्ली का पारम्परिक काम अतीत का हिस्सा बन कर रह गया है। डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी, धरोहर हरियाणा संग्रहालय
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र