इतिहास के झरोखे से: 1977 में 12,120 वोट लेकर विधायक बने थे बीरेंद्र सिंह Panipat News
50 साल से राजनीति कर रहे बीरेंद्र सिंह का सियासी सफर हार से शुरू हुआ था। 1977 में जीतकर वह विधानसभा पहुंचे थे।
पानीपत/जींद, [कर्मपाल गिल]। चौधरी छोटूराम और बांगर में चौधर लाने के नाम पर 50 साल से राजनीति कर रहे बीरेंद्र सिंह का सियासी सफर हार से शुरू हुआ था। उन्होंने अपना पहला चुनाव 1972 में नरवाना हलके से कांग्रेस की टिकट पर लड़ा था। लेकिन वह चुनावी मुकाबले में भी जगह नहीं बना सके थे और तीसरे नंबर पर रहे थे। 1977 में उन्होंने दूसरा चुनाव उचाना हलके से लड़ा और कड़े मुकाबले में जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे थे। इसके बाद बीरेंद्र सिंह ने सियासत में पीछे मुड़कर नहीं देखा और नाना चौ. छोटूराम के वारिस के तौर पर सियासत में आगे बढ़ते चले गए।
प्रदेश में 1972 में जब विधानसभा चुनाव हुआ, तब 81 सीटें थीं। 1977 के चुनाव में 90 हलके बना दिए गए थे। नए हलकों में जींद जिले का उचाना विधानसभा क्षेत्र भी शामिल था। सियासी करियर का पहला चुनाव हार चुके बीरेंद्र सिंह 1977 में उचाना से कांग्रेस की टिकट लेने में कामयाब हो गए। तब प्रदेश में जनता पार्टी की लहर थी। इसलिए उसकी टिकट के लिए कई नेताओं में होड़ थी।
ये थे तगड़े दावेदार
जनता पार्टी के सांसद इंद्र सिंह श्योकंद के पुत्र जगरूप सिंह भी टिकट के तगड़े दावेदार थे। वह इमरजेंसी के दौरान 19 महीने जेल में रह चुके थे। इसलिए टिकट पर दावा ठोंक रहे थे। लेकिन देवीलाल ने जगरूप सिंह की बजाय बड़ौदा गांव के रणबीर सिंह चहल को टिकट दे दी। ऐसे में जगरूप सिंह निर्दलीय मैदान में कूद गए।
कांटे का मुकाबला
वहीं करिसंधु गांव के देशराज नंबरदार ने भी निर्दलीय ताल ठोक दी। इसका सबसे बड़ा फायदा बीरेंद्र सिंह को हुआ, क्योंकि जनता पार्टी के वोट तीन जगह बंट गए थे। चुनाव में चारों नेताओं के बीच कांटे का मुकाबला हुआ। खास बात यह रही कि जगरूप सिंह व बीरेंद्र सिंह दोनों गांव डूमरखां कलां के रहने वाले थे।
कुछ ऐसा रहा परिणाम
बुजुर्ग बताते हैं कि तब लोगों के बीच यह चर्चा थी कि बीरेंद्र सिंह यह चुनाव भी हार गए तो वह रोहतक चले जाएंगे। क्योंकि उनके नाना छोटूराम की कोठी भी रोहतक में थी। बीरेंद्र की शुरुआती पढ़ाई भी वहीं हुई थी। लेकिन कांटे के इस मुकाबले में बीरेंद्र सिंह 12120 वोट लेकर भी जीत गए। जबकि जनता पार्टी के रणबीर सिंह 10488 वोट लेकर दूसरे नंबर पर रहे। इस तरह 1632 वोटों के अंतर से बाजी बीरेंद्र सिंह के हाथ लगी। इसके बाद बीरेंद्र सिंह लगातार सियासी सीढ़ियां चढ़ते चले गए और 1982, 1991, 1996 व 2005 में जीत दर्ज की। एक बार 1984 में हिसार से सांसद भी बने। हालांकि वर्ष 2000 में इनेलो के भाग सिंह छातर से 6942 और 2009 में ओमप्रकाश चौटाला से 621 वोटों से शिकस्त भी ङोलनी पड़ी।