अस्सी कली. बावन गज का मेरा घूम घाघरा.
लोकजीवन में लोकवेशभूषा की परंपरा सदियों पुरानी है। घाघरा भी इस परंपरा के तहत आने वाला परिधान है।
लोकजीवन में लोकवेशभूषा की परंपरा सदियों पुरानी है। इस परंपरा के निर्वहन एवं हमारी लोकवेशभूषा को समृद्ध से समृद्धता की ओर विकसित करने में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। घाघरा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला लोकवेशभूषा का वह स्वरूप है जिसका वर्णन हरियाणवी गीतों एवं रागनियों में भी आता है। घाघरे का स्वरूप बड़ा होता है जबकि घाघरी छोटी होती है। घाघरे को ही लोकजीवन में दाम्मण कहा जाता है। लोक में बावन गज का घूम घाघरा एवं अस्सी कली का का दाम्मण विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा है। घाघरे के अलग-अलग स्वरूपों को है लह, खारा, कत्था, पहरणा, कैरी आदि भी कहा जाता है। सामाजिक दृष्टि से घाघरा अत्यंत लोकप्रिय रहा है। हरियाणवी नृत्य में नाचने के लिए घाघरे का प्रयोग आज भी आशिक रूप से देखने को मिलता है। सागों में पुरुष नृत्यकारों ने घाघरे का प्रयोग कर इसकी लोकप्रियता को और अधिक बढ़ाया है। दादा लख्मीचंद व अन्य सागियों के साग में घाघरा पहनकर नृत्य करने की परम्परा विकसित हुई थी। इसलिए घाघरा सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई लोक वेशभूषा है। लडक़ी की विदाई से पूर्व आस-पड़ोस की सारी महिलाएं एकत्रित होकर तीज्जण के माध्यम से हरियाणवी लोकवेशभूषाओं की ससुराल में जाने वाली लडक़ी हेतु तैयारी किया करती। उसके बाद ही तिल दिखाई परंपरा का निर्वहन किया जाता था। इतना ही नहीं किसकी बहू कितनी तियल एवं घाघरी लेक के आई इसका चर्चा भी आस-पड़ोस में हुआ करता था। घाघरा लोक में महिलाओं द्वारा कमर से पाव तक पहने जाने वाला लोक परिधान है। इसके घेरदार घेरे की बदौलत ही इसे घाघरे का नाम दिया गया और लामण का अपभ्रंशित रूप ही दाम्मण हो चला है। घाघरा मूलत: कमर पर नाड़े की सहायता से बाधे जाना वाला ऊपर से कम तथा नीचे से अधिक घेरेवाला लोकपरिधान है, इसके नीचे के भाग में लगभग चार-पाच अंगुल चौड़ा कपड़ा अंदर की ओर जोड़ा जाता है, जिससे लामण कहते हैं। लामण और दाम्मण के कपड़े को जोड़ते समय एक बारीक सी रंगीन किनारी भी लगाई जाती है, जिसे मगज़ी कहा जाता है। यह हाथ से बने सूत व जुलाहे से बने खद्दर से बनता है, इसके ऊपर की चीन में नाड़ा डलता है। नाड़े की चीन भी हाथ से ही बनाई जाती है। घाघरा एवं दाम्मण मूलत: लट्ठे, रेज्जे तथा सूत्ती कपड़े से बनाया जाता है। महिला द्वारा अस्सी कली का घूम-घाघरा तैयार करने में तीन से चार दिन लग जाया करते थे, परंतु नीलबडिय़ों तथा रंगरेज़ों के रंग व रंगेरेज़े से महिलाएं अपनी घाघरी तैयार करती रही हैं। वह वास्तव में घाघरे एवं दाम्मण से ही जुड़ी हुई विषय-वस्तु है। दाम्मण के वस्त्र की काट-छाट कुछ इस प्रकार की होती है कि इसका नीचे का घेरा अधिक होता है। इसी घेरे की बदौलत महिलाएं अपने नृत्य में दाम्मण का प्रयोग कर अपनी भाव-भंगिमाओं को मूर्त रूप प्रदान करती हैं। विवाह का अवसर हो या बच्चे पैदा होने का, मेल़ा हो या उत्सव सभी नृत्यों में घाघरे एवं दाम्मण का खूब प्रचलन देखने को मिलता है। दर्जी एवं छिप्पी घाघरे के लत्ते को काट-छाट कर अलग-अलग भागों में तुरपता है। इन्हीं भागों को घाघरे की कली कहा जाता है। लोकजीवन में बावन कली का घाघरा विशेष रूप से प्रसिद्ध है। महिलाएं घाघरों के साथ माचिस की डिब्बियों में सरसों तथा कंकर आदि डालकर सील देती हैं, जिससे जो महिला घाघरा पहनकर चलती थी, उससे सामूहिक रूप में लगी माचिसों की आवाज़ अत्यंत मनोरम ध्वनि पैदा करती थी। लोकजीवन में अनेक प्रकार के घाघरों का प्रयोग रहा है जिनमें कैरी घाघरा, चाद-तारा घाघरा, कीकरफुली घाघरा, कंद का घाघरा, चाद-तारों वाला घाघरा, बुंदी घाघरा, रेज्जा घाघरा एवं खारा,
हरियाणवीं लोकसाहित्य, घाघरे व दाम्मण का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। घाघरा लोक परिधान ही नहीं अपितु लोक परम्परा का वह अंग है जिसको जनमानस लोकगीतों, लोककथाओं, लोकगाथाओं, मुहावरों आदि में समाहित पाता है। लोकजीवन में प्रचलित घाघरे एवं दाम्मण से सम्बन्धित लोकोक्तिया एवं मुहावरे जैसे घाघरी तल़ै का, घाघरी उढ़ाणा, घाघरी पहराणा, घाघरी का नाड़ा टूटणा, पाटी घाघरी लुगड़ी जोग्गी होणा, घाघरी की लाम्मण मुड़णा, घाघरी ठाणा, इतणे का काम नीं करवाया, जितणे का घाघरा पड़वा दिया, खूंटी पै घाघरी टंगणा, बिटोड़े पै घाघरा सूखणा, आज भी उतने ही प्रसिद्ध एवं प्रासागिक हैं। घाघरे की पारम्परिकता का ब्यौरा हरियाणवी लोकगीतों में भी देखने को मिलता है - घुमै-धुमै री मेरा घाघरा, दामण पहरूंगी महल के बीच, मैं छैल गेल्या जागी, दामण मेरा भारया, दूर का जाणा मैं छैल गेल्या जागी जैसे अनेकों गीत घाघरे एवं दामण की कसौटी पर खरे उतरते हैं। आधुनिकता की इस दौड़ में लोक पारम्परिक परिधानों की कड़ी में घाघरा भी अतीत का हिस्सा बन कर रह गया है। आवश्यकता है इसको वर्तमान स्वरूप में ढ़ालकर प्रस्तुत करने की ताकि युवा पीढ़ी अपने लोक पारम्परिक परिधान को फिर से अपना सके।
-डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी, धरोहर हरियाणा संग्रहालय,
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय