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दोषियों की प्री-मेच्योर सजा माफी देने की नीति पर हाई कोर्ट ने उठाए सवाल, नीति में सुधार के आदेश

पंजाब एवंं हरियाणा हाई कोर्ट ने हरियाणा सरकार को प्री-मेच्योर सजा माफी को लेकर स्पष्ट नीति तीन माह में तैयार करने केे निर्देश दिए हैं।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Wed, 13 May 2020 11:21 AM (IST)Updated: Wed, 13 May 2020 11:21 AM (IST)
दोषियों की प्री-मेच्योर सजा माफी देने की नीति पर हाई कोर्ट ने उठाए सवाल, नीति में सुधार के आदेश
दोषियों की प्री-मेच्योर सजा माफी देने की नीति पर हाई कोर्ट ने उठाए सवाल, नीति में सुधार के आदेश

जेएनएन, चंडीगढ़। दोषियों की प्री-मेच्योर सजा माफी को लेकर हरियाणा सरकार की नीतियों पर पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने सवाल उठाते हुए कहा है कि यह नीतियां अस्पष्ट हैं। ऐसे में सरकार इन नीतियों को तीन महीने में नए सिरे से सुधार कर तैयार करे। हाई कोर्ट ने कहा कि हालांकि यह सरकार का अधिकार है कि वह यह तय करे कि प्री-मेच्योर सजा माफी की क्या नीति हो, लेकिन नीतियां ऐसी हों उन पर सवाल न उठें और उनमें एकरूपता बनी रहे।

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जस्टिस गुरविंदर सिंह गिल ने यह आदेश हत्या के एक मामले में दोषी करार दिए गए राजकुमार उर्फ बिटटू द्वारा अपनी सजा माफी की मांग को लेकर दायर याचिका का निपटारा करते हुए हरियाणा सरकार को दिए हैं। दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने बताया था कि 19 सितंबर 2006 को उसके खिलाफ हत्या और आर्म्स एक्ट की कई धाराओं के तहत गुरुग्राम में एफआइआर दर्ज की गई थी। इस मामले में मार्च 2010 में गुरुग्राम की जिला अदालत ने उसे दोषी करार दे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। वह अब 13 वर्ष की सजा काट चुका है। ऐसे में हरियाणा सरकार की 2002 की नीति के तहत प्री-मेच्योर सजा माफी दी जाए, लेकिन सरकार ने उसकी यह मांग खारिज कर दी।

वर्ष 2008 में नई नीति आ चुकी है। वह 2010 में दोषी करार दिया गया है। लिहाजा उस पर 2008 की नीति के तहत ही गौर किया जा सकता है। याचिकाकर्ता के एडवोकेट विजय जिंदल ने कहा कि 2002 की नीति राज्यपाल द्वारा संविधान के अनुच्छेद-161 द्वारा प्रदत शक्तियां के तहत लाई गई थी और 2008 की नीति हरियाणा सरकार ने सीआरपीसी की धारा-432 और 433 के तहत बनाई गई है। ऐसे में बाद की नीति पूर्व की नीति पर हावी नहीं हो सकती है।

वहीं, सरकार ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि यह राज्य सरकार मौजूदा प्रतिस्थितियों के आधार पर नीति तय करती है। हाई कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा कि चाहे 2008 की नीति सीआरपीसी की धारा-432 और 433 के तहत लाई गई है लेकिन यह नीति राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद-161 के तहत लाई गई नीति को सुपरसीड कर सकती है। इस बारे में कुछ भी स्पष्ट ही नहीं किया गया और कोई दिशा-निर्देश भी तय नहीं किए गए।

हाईकोर्ट ने सभी तथ्यों पर गौर करने के बाद कहा कि नीतियां ऐसी हों जो स्पष्ट हों। नीतियों की अस्पष्टता के कारण सवाल खड़े होते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार इन नीतियों पर दोबारा गौर कर तीन महीनों में इसमें सुधार पर नई नीति तैयार करे। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि प्री-मेच्योर सजा माफी किसी का अधिकार नहीं है। यह सरकार का अधिकार है कि वह इसको लेकर नीति बनाए, लेकिन नीति स्पष्ट हो। उसमें एकरूपता होनी बेहद जरुरी है और जब तक नई नीति नहीं बनती है तब तक सरकार चाहे तो अनुच्छेद-161 के तहत दोषियों की प्री-मेच्योर सजा माफी पर केस के आधार पर गौर कर सकती है।


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