शकील, कमलनाथ व आजाद भी बन सके हरियाणा कांग्रेस के संकटमोचक, गुटबाजी बरकरार
पिछले पांच सालों में हरियाणा कांग्रेस को तीन प्रभारी मिले लेकिन कोई प्रभारी यहां के नेताओं को एकजुट नहीं कर सका। इसका नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस निरंतर कमजोर हो रही है।
चंडीगढ़ [अनुराग अग्रवाल]। हरियाणा में कांग्रेस की कलह के लिए पार्टी के प्रमुख नेता जितने जिम्मेदार हैं, उससे कहीं अधिक जिम्मेदार प्रदेश प्रभारी हैं, जिन्होंने आज तक इन कांग्रेसियों को एकजुट करने की दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किए। पिछले पांच सालों में हरियाणा कांग्रेस को तीन प्रभारी मिले, लेकिन कोई प्रभारी इन नेताओं को एकजुट नहीं कर सका। इसका नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस निरंतर कमजोर हो रही है और भाजपा को कांग्रेस की गुटबाजी का फायदा मिल रहा।
कांग्रेस हाईकमान ने हरियाणा के कांग्रेस दिग्गजो को उनके हाल पर छोड़ दिया है। हाईकमान को प्रदेश के कांग्रेसियों की तभी याद आती है, जब दिल्ली में पार्टी के कार्यक्रमों में भीड़ जुटानी होती है। राज्य कांग्रेस भले ही हुड्डा, तंवर, किरण, कुलदीप, सुरजेवाला, कैप्टन और सैलजा खेमों में बंटी है, लेकिन कांग्रेस हाईकमान एक के बाद एक कड़े फैसले लेकर इन कांग्रेस दिग्गजों को एकसूत्र में बांधने का फरमान जारी कर सकता है।
कांग्रेस हाईकमान ने कई मौकों पर यह तो कहा कि पार्टी से बड़ा कोई नेता नहीं हो सकता, लेकिन अपने इस कथन को हरियाणा में कभी लागू नहीं किया। कांग्रेस हाईकमान की कमजोरी का ही नतीजा है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में सदस्यों के तौर पर हरियाणा का कोई खास प्रतिनिधित्व नहीं है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारियों की घोषणा भी हाईकमान नहीं कर सका और न ही जिला अध्यक्षों व ब्लाक अध्यक्षों की सूची पर सहमति की मुहर लगाई जा सकी।
कांग्रेस हाईकमान ने जिला अध्यक्षों, ब्लाक प्रधानों तथा प्रदेश पदाधिकारियों की सूची को यह कहकर वापस लौटा दिया कि इसमें सभी गुटों के नेताओं का प्रतिनिधित्व नहीं है, लेकिन प्रदेश प्रभारी ने इस सूची को कभी अपने ढंग से दुरुस्त करने का साहस नहीं दिखाया। अगर प्रदेश प्रभारी अपने स्तर पर इन सूचियों में बदलाव कर उसे जारी करते तो किसी दिग्गज में इतना साहस नहीं था कि वह हाईकमान के फैसले को चुनौती दे सकता। हरियाणा में कांग्रेस प्रभारी सिर्फ नाम के रहे। उन्होंने फैसले लेने में न तो दृढ़ इच्छा शक्ति दिखाई और न ही सभी गुटों को साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी का निर्वाह किया। कई प्रभारी तो ऐसे रहे, जो अपनी गतिविधियों से कांग्रेस दिग्गजों का फेवर और विरोध करते दिखाई पड़े।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा जब सूबे के मुख्यमंत्री थे, तब डॉ. शकील अहमद के पास हरियाणा कांग्रेस का प्रभार था। शकील अहमद कई साल हरियाणा कांग्रेस के प्रभारी रहे। अशोक तंवर के अध्यक्ष बनने के बाद भी उन पर हरियाणा कांग्रेस का प्रभार रहा। राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस विधायकों की क्रास वोटिंग के बाद शकील अहमद को बदल दिया गया था। उनके बाद कमलनाथ हरियाणा कांग्रेस के प्रभारी बनकर आए। शुरू में कमलनाथ ने बड़ी-बड़ी बातें की, लेकिन कांग्रेसियों की आपसी गुटबाजी पर उन्होंने भी तौबा कर ली।
शकील अहमद और कमलनाथ के बाद तुजुर्बेकार गुलाम नबी आजाद को हरियाणा कांग्रेस का प्रभार सौंपा गया। उनके आने से लग रहा था कि कांग्रेस में अब गुटबाजी नहीं रहेगी। उन्होंने लोकसभा चुनाव में कांग्रेसियों को एक रथ में चढ़ाने तथा समन्वय समिति बनाने में सफलता हासिल की, लेकिन न तो कांग्रेस दिग्गज सिर जोड़कर चल पाए और न ही समन्वय समिति उम्मीद के मुताबिक नतीजे दे सकी। कांग्रेस हाईकमान की अनदेखी और प्रभारी की उदासीनता का ही नतीजा है कि अब अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे कि वे किस खेमे के साथ जुड़े रहें और किसके हक में पाला बदलें।