शौर्य गाथा: गोलियां तो खाई, पर पीछे मुंडकर नहीं देखा जवानों ने
भारत-पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 में हुए युद्ध में देश के कितने ही वीरों ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। कुछ वीर ऐसे भी थे, जो युद्ध में फतह के बाद भी कई माह तक पाकिस्तान में रहे। लड़ाई को करीब 47 वर्ष पूरा होने के बाद उन्हीं वीरों में शामिल गांव मित्रोल के नंगला श्रीनगर निवासी सिपाही राम को आज भी देश के सैनिकों पर गर्व है। राम ¨सह का कहना था कि युद्ध के दौरान भारतीय सेना के जवानों ने सीने पर गोलियां तो खाई, परंतु एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। राम ¨सह ने वर्ष 1971 के युद्ध में ही नहीं 1965 के युद्ध में भी हिस्सा ले चुके हैं।
- वर्ष 1965 के भारत-पाक युद्ध में भी लिया था राम ¨सह ने हिस्सा
सुरेंद्र चौहान, पलवल
भारत-पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 में हुए युद्ध में देश के कितने ही वीरों ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। कुछ वीर ऐसे भी थे, जो युद्ध में फतह के बाद भी कई माह तक पाकिस्तान में रहे। लड़ाई को करीब 47 वर्ष पूरा होने के बाद उन्हीं वीरों में शामिल गांव मित्रोल के नंगला श्रीनगर निवासी सिपाही राम को आज भी देश के सैनिकों पर गर्व है। राम ¨सह का कहना था कि युद्ध के दौरान भारतीय सेना के जवानों ने सीने पर गोलियां तो खाई, परंतु एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। राम ¨सह 1965 के युद्ध में भी हिस्सा ले चुके हैं।
वर्ष 1938 में जन्मे राम ¨सह ने बताया कि वे 30 मार्च 1963 को भारतीय सेना में एएससी एटी में भर्ती हुए थे। वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वे जम्मू कश्मीर के बारामूला के उड़ी सेक्टर में तैनात थे। तीन दिसंबर को लोंगेवाला पोस्ट पर पाकिस्तान के हमले के बाद युद्ध शुरू हो गया था और 16 दिसंबर को समाप्त हो गया था। रेडियो से मिली आक्रमण की सूचना
राम ¨सह ने बताया कि उड़ी सेक्टर में वे रात्रि में अपनी पोस्ट पर तैनात थे। तीन दिसंबर की रात करीब एक बजे पाकिस्तान की तरफ से फाय¨रग हुई और फिर बंद हो गई। फिर दो और फायर हुए। उन्होंने अपने कमांडर नायक खेम ¨सह को जगाया और फाय¨रग के बारे में बताया। इस पर पूरी पोस्ट के जवान सचेत हो गए। अगले दिन सुबह करीब पांच बजे बमबारी शुरू हो गई।
इसी दौरान कुछ जवानों ने रेडियो ऑन किया तो समाचार मिला कि उड़ी सेक्टर में पाकिस्तान सेना ने फाय¨रग कर दी है। नौ दिसंबर को रात 12 बजे अलार्म बजा, जिसके बाद सभी मैदान में एकत्र हो गए। मेजर अलख ने आदेश दिया कि अब लेक्चर देने का समय नहीं है। सभी अपना जरूरी सामान और वह भी थोड़ा, असला पूरी लेकर तैयार हो जाओ। अभी गाड़ी आ रही है और लड़ाई के लिए निकलना है। उसके बाद सभी गाड़ियों से टॉप पर पहुंचे। माइंस की भी नहीं की परवाह, बस आगे बढ़ते गए
राम ¨सह ने बताया कि रात्रि में पाकिस्तानी सेना के साथ गोलीबारी शुरू हो गई थी। दो-तीन दिन तक फाय¨रग चलती रही। चौथे दिन आदेश आया कि ¨हदवाड़ा पहुंचना है। फिर पूरी प्लाटून गाड़ी से कश्मीर के ¨हदवाड़ा क्षेत्र के लिए निकल पड़ी। बर्फ के कारण रास्ते में गाड़ियों के टायर स्लिप करने लगे। चेन लगाने के बाद भी गाड़ियां आगे नहीं बढ़ पाई। फिर पैदल ही जवान कईया क्षेत्र पहुंचे। वहां आदेश मिला कि जल्द से लंगर में खाना खाकर निकलना है। दिन भर बर्फ में चलकर सांय साढ़े सात बजे कैंप में पहुंचे, लेकिन वहां से गार्ड नहीं मिला। न रास्ते का पता था और पगडंडी बर्फ के कारण ढक चुकी थी, परंतु आगे बढ़ने का आदेश था तो बढ़ते रहे। पोस्ट पर पहुंचने के बाद भी आगे बढ़ते रहने का आदेश मिला। आगे माइंस बिछी हुई थी, जिस कारण सैनिकों को रात बंकरों में काटनी पड़ी। सुबह फिर माइंस की परवाह किए बिना आगे बढ़ते चले गए। शाम सात बजे अंधेरा हो चुका था और आगे से फाय¨रग की आवाजें आ रही थी। सभी ने मोर्चा संभाल लिया और पहले जवानों से आगे की रेकी करवाई और गोलीबारी के बीच 20 किलोमीटर आगे पहुंच गए। चार दिनों तक फिर लड़ाई चलती रही। इस दौरान काफी सैनिक शहीद हो चुके थे और कुछ घायल भी हुए थे। हमले की दिया मुंहतोड़ जवाब
उन्होंने बताया कि वे पाकिस्तानी सीमा में करीब 60 किलोमीटर अंदर पहुंच चुके थे। पाकिस्तान के सैनिक बहुत धोखेबाज थे। 16 दिसंबर को दिन में युद्ध विराम की घोषणा होने के बाद भी शाम को उनकी टुकड़ी पर हमला कर दिया। भारतीय सैनिकों ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। रात्रि करीब 12 बजे सीस फायर होने के बाद युद्ध समाप्त हो गया। हमसे भी आगे एक टुकड़ी और थी तो उनके पास खाना पहुंचाने में भी परेशानी थी। सैनिक कई दिनों से भूखे थे और जख्मी भी थे। करीब 10 दिन बाद उन्हें वापसी के आदेश मिले तो वह एक चौकी पर आकर तैनात हो गए। करीब दो माह तक उनकी प्लाटून को चौकी पर कब्जा जमाए रखना पड़ा। बर्फ ज्यादा पड़ रही थी और खाना पीना सब कुछ खत्म हो चुका था। जवानों की हालत बहुत खराब हो चुकी थी। कमांडर को जब इसकी सूचना भेजी तो उन्होंने एक टुकड़ी को उनकी मदद के लिए भेजा। टुकड़ी भी बहादुर थी, जो बर्फबारी के बीच रात में भी करीब 20 किलोमीटर का रास्ता तय करके हम तक पहुंची। टुकड़ी के साथ हम बिस्तर और हथियार के साथ पोस्ट पर वापस पहुंचे। पोस्ट से करीब 50 किलोमीटर नीचे बारामूला कैंप तक छह दिन में पहुंच पाए। छुट्टियां तो अब जंग जीतने के बाद ही
राम ¨सह ने युद्ध से पहले का किस्सा बताते हुए कहा कि ब्रज क्षेत्र में होली पर गांव में काफी उल्लास रहता था और वह स्वयं चौपाई भी गाते थे। फरवरी में परिवार में शादी थी। सर्दियों के कारण कमांडर ने सभी को छूट दी थी कि जो छुट्टियां लेना चाहते हैं वे ले लें। राम ¨सह ने भी छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी। अचानक युद्ध शुरू होने पर मेजर साहब ने हवलदार को भेजा कि राम ¨सह की छुट्टी मंजूर हो गई है और उसे वापस कैंप ले आओ। जब हवलदार राम ¨सह के पास यह सूचना लेकर पहुंचा तो उन्होंने कहा कि छुट्टियां तो अब जंग जीतने के बाद ही ली जाएगी और वापस जाने से मना कर दिया।