आपातकाल के 44 साल : दहशत का ऐसा आलम नहीं देखा, छह माह तक पता ही नहीं चला कहां ले गई पुलिस
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो देश दहशत के साये में आ गया। कई नेता व समाजिक कार्यकर्ता कैद कर लिए गए। इनमें लाला श्यामसुंदर गाेयल भी थे।
झज्जर, [अमित पोपली]। 25 जून 1975। देश में आपातकाल लग गया था। पूरा देश दहशत के साये में आ गया। विरोधी दलों के नेता व सामाजिक कार्यकर्ता कैद में डाल दिए गए थे। इनमें ही शामिल थे झज्जर के लाला श्यामसुंदर गोयल भी शामिल थे। लाला को अलसुबह सोते से जगाकर गिरफ्तार किया गया। छह माह तक उनको पता ही नहीें चला कि उनको कहां ले जाया गया है।
हुआ यूं, रात दस बजे लाला श्यामसुंदर गोयल रोज की तरह झज्जर स्थित दुकान से घर लौटे। चेहरे पर चिंता और विस्मय का भाव। आते ही बोले, आज घर के बाहर कुछ अनजान चेहरे मुझे घूर रहे थे। कुछ गलत होने का भान तो था, मगर यह नहीं समझ पा रहे थे कि क्या हो सकता है? खैर, भोजन के बाद अपने शयनकक्ष में चले गए। काफी देर तक नींद नहीं आई। अभी आंख लगी ही थी कि किसी ने दरवाजा पीटा। घड़ी देखी तो सुबह के चार बजे थे। तमाम सवाल जेहन में आने लगे। दोबारा खट-खट की आवाज हुई। पूछा तो सामने से थानेदार की कड़क आवाज थी-दरवाजा खोलो। सोने से पहले की आशंकाएं अब दरवाजे पर खड़ी थीं। थानेदार ने सिर्फ इतना बताया कि ऊपर से गिरफ्तारी का आदेश है।
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आपातकाल के दौरान अंबाला में जेल बंद रहे लाला श्यामसुंदर के परिवार ने झेली असहनीय दर्द
44 साल पहले की वह काली रात याद कर लाला श्यामसुंदर के पुत्र शिवशंकर की आंखें भर आईं। वह कहते हैं-कैसे भूल सकता हूं उस मनहूस रात को। उस दिन ने हम भाई-बहनों का बचपन छीना है। मां प्रेमवती देवी और हम सात भाई-बहन (घनश्याम गुप्ता, सुरेश चंद, नरेश चंद, दिनेश गुप्ता, डॉ. शिवशंकर, नंद किशोर, उर्मिला रानी) पिताजी की गिरफ्तारी से स्तब्ध थे। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? कहां जाएं? बस यही सवाल था कि अब क्या होगा, बाबूजी कहां गए, कब आएंगे? मगर किसी के पास सही जवाब नहीं था। हो भी नहीं सकता था। पुलिस से पूछने पर धमकी मिलती थी।
सुबह चार बजे घर में सोते समय उठा ले गई थी पुलिस, पत्नी पर आ गई थी सात बच्चों की जिम्मेदारी
शिवशंकर बताते हैैं कि सबसे बड़े भाई घनश्याम गुप्ता तब 17-18 साल के थे। मां गृहिणी थीं। आढ़त की दुकान मुनीम के भरोसे हो गई थी। कारोबार घटने लगा। सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि छह माह तक हमें पता नहीं चल पाया कि पिता जी को लेकर वे लोग गए कहां हैं? किसी तरह उनके अंबाला जेल में बंद होने की बात सामने आई तो डर थोड़ा कम हुआ। माता जी के साथ बड़े भाई जेल में मिलने गए। महज दो मिनट की मुलाकात थी। हमेशा प्रसन्नचित रहने वाले आरएसएस की विचाराधारा वाले पिताजी अब चिंतित थे। शरीर से भी कमजोर हो गए थे। सोचने का अंदाज बदल चुका था। कहते थे-अगर गलती की होगी तो माफी भगवान से मांगेंगे, इंसान से किसलिए?
शिवशंकर बताते हैं, धीरे-धीरे हालात और बिगड़ते गए। मां अकेली घर संभालने वाली थीं। उन पर हम सात भाई-बहनों के लालन-पालन की जिम्मेदारी आ गई। लगता था कि सभी टूट जाएंगे, मगर मां हार मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने किसी के सामने दुख नहीं रोया। वह अकेले में आंसू बहाती थीं। कोई देखता तो आंचल से आंसू पोंछ लेतीं और जतातीं जैैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।
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जेल से आए तो बदला था अंदाज
शिवशंकर ने बताया, 11 माह बाद जब पिताजी पैरोल पर जेल से बाहर आए तो पूरी तरह बदल गए थे। बातचीत में संत-योगी जैसा अहसास करा जाते थे। कहते थे कि अब देश में बदलाव जरूरी है। जीवनभर आपातकाल से जुड़े किस्से सुनते-सुनाते रहे। उनके कमरे में डॉ. मंगल सेन, लक्ष्मी चंद गुप्ता, हुक्म चंद गोयल सहित अन्य दिग्गज घंटों चर्चा करते।
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चाचा की जबरन नसबंदी करा दी थी पुलिस ने
शिवशंकर ने बताया कि आपातकाल के दौरान चाचा को पुलिस ने उठा लिया और जबरन नसबंदी करा दी गई। कई दिनों तक तो वे सामान्य भी नहीं हो पाए। जेल से पिता जी आए तो चाचा ने रोते हुए उन्हें पूरी बात बताई।
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