दादा बूढ़ा मंदिर और हवेलियां हैं आसौदा की पहचान, दो बार उजड़ा मगर फिर बस गया
आसपास के इलाके में प्रसिद्ध मंदिर और हवेलियों का जिक्र आते ही आसौदा का नाम खुद ब खुद जुबां पर आ जाता है। यह गांव दो बार उजड़ा मगर फिर बस गया। इसका इतिहास
जागरण संवाददाता, बहादुरगढ़ : आसपास के इलाके में प्रसिद्ध मंदिर और हवेलियों का जिक्र आते ही गांव आसौदा का नाम खुद ब खुद जुबां पर आ जाता है। यह गांव दो बार उजड़ा मगर फिर बस गया। इसका इतिहास 800 साल से भी ज्यादा पुराना है। गांव में बना दरवाजा आज भी यहां के बा¨शदों और बलौच जाति के लोगों के बीच हुई जंग का गवाह है। पहलवानी से लेकर समाजसेवा तक में भी इस गांव के नाम की अहमियत कम नही हैं। इस गांव में हैं दो पंचायत । आसौदा सिवान और आसौदा टोडराण। मगर दोनों पंचायतों के बीच की सीमाएं गांव के बाशिदों के अलावा किसी और के लिए पहचान बना संभव नहीं। बुजुर्ग बताते हैं कि कई मुहल्लों (पानों) में बंटा यह गांव सिलौठी से आए लोगों ने बसाया था। सीबन, टोडर, चीमन के नाम से तीन प्रमुख मुहल्ले बने। ---दादा बूढ़ा मंदिर की दूर-दूर तक आस्था गांव में बना दादा बूढ़ा मंदिर दूर-दूर तक के लोगों की आस्था का केंद्र है। साल में दो बार भादो माह और माघ में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को यहां पर मेला लगता है। रोट के नाम से यहां प्रसाद चढ़ाया जाता है। गांव की पुत्रवती बेटियां इस मेले के दौरान ही गुड़ की भेलियां भी बांटती हैं। ये सब धार्मिक क्रियाकलाप लोगों में दादा बूढ़ा के प्रति आस्था और बढ़ा देते हैं। गांव के पंडित हंसराज बताते हैं कि इस मेले के दौरान ही मंदिर परिसर में बने पवित्र तालाब से मिट्टी निकालने की भी रवायत है। सभी परिवार के सदस्यों के नाम से यह मिट्टी निकाली जाती है और भविष्य में सुख समृद्धि की कामना की जाती है। ---गांव में शान बनकर खड़ी हैं हवेलियां इस गांव में पुरानी हवेलियां आज भी शान बनकर खड़ी हैं। कुछ तो 100 साल पुरानी हैं। बाकी छह से सात दशक पुरानी हैं। कुछ हवेलियां वक्त के साथ और बिना देखरेख के बेजान हो गई, मगर जिनको संभाला गया, वे आज की पीढ़ी को पुरानी भवन निर्माण कला से बारीकी के साथ रूबरू करवाती हैं। ग्रामीणों के मुताबिक इन हवेलियों में छोटी ईटें, चूना, पत्थर, लोहे के जाल इनकी खासियत ब्यां करते हैं। उस वक्त के कारीगरों ने इतनी संजीदगी से इनको गढ़ा है कि देखने वाले देखते ही रह जाते हैं। गांव के निवासी राजेश बताते हैं कि आज भी टोडराण और सिवान के हिस्सों में कई हवेलियां मजबूती के साथ खड़ी हैं। गांव में बलौच जाति और स्थानीय बा¨शदों के बीच जंग भी हुई। गांव में बना पुराना दरवाजा अतीत की याद दिलाता है। पहले पूरा गांव इस दरवाजे के अंदर बसता था। ----गांव की समाज सेवा का भी नाम आसौदा निवासी सनवीर दलाल बताते हैं कि कुएं और धर्मशाला न केवल पुराने समय से इंसान की जरूरत रहें हैं बल्कि ये हमारी संस्कृति का भी प्रतीक हैं। एक समाजसेवी की ओर से रिकार्ड संख्या में कुएं और धर्मशाला बनवाने का रिकार्ड भी इसी गांव के नाम है। यहां के रामरत्न की ओर से फर्रुखनगर मार्ग पर 100 कुएं और 100 धर्मशालाएं बनवाई गई थी। यह धर्म और इंसानीयत के कर्म का ही नतीजा था कि जहां पर भी कुआं बनवाया, वहीं पर पानी मीठा निकला था। गांव के इतिहास का यह सच्चा किस्सा सदा अमिट रहेगा। ---पहलवानी में भी है नाम गांव के पूर्व सरपंच सतपाल दलाल बताते हैं कि यहां के पहलवानों का भी पूरा नाम रहा है। टेकन महाल, बद्धू पहलवान, केहरी पहलवान के बाद यहां सतेंद्र, कुलबीर, ढीला, जगप्रवेश उर्फ बंटा, रजनीश, परमजीत समेत अनेक पहलवानों ने गांव का नाम रोशन किया है। इसके अलावा विकास, प्रीतम, बागड़ी और अन्य बहुत से खिलाड़ी हैं, जो गांव की शान है। हर तीसरे घर से यहां किसी न किसी विधा का खिलाड़ी निकलता रहा है। गांव की बेटी राधा, मनीक्षा समेत अनेक लड़कियां भी यहां से खेलों में खुद को साबित कर चुकी हैं। हाल ही में गांव की बेटी प्रीती दलाल का भी लेफ्टिनेंट के पद पर चयन हुआ है।
-- गांव की अनेकों खासियत ही यहां के हर निवासी का मान बढ़ाती हैं। उम्मीद है कि आने वाले समय में यहां के युवा और बड़ी उपलब्धियां हासिल करेंगे।
--रणबीर, सरपंच, आसौदा टोडराण