मछलियों से मनुष्यों में कैंसर फैलने का खतरा, अंत:ग्रंथियों पर दुष्प्रभाव डाल रहा पेस्टीसाइड
cancer can spreading in humans due to fish सीआरएम जाट कॉलेज के प्रो. सुरेश ने लंदन में पेस्टीसाइड का जीव-जंतुओं की अतग्रंथियों पर प्रभाव विषय पर प्रस्तुत की रिसर्च
हिसार [सुभाष चंद्र] आने वाले समय में मछलियां जल की रानी नहीं रह पाएंगी, क्योंकि फसलों में प्रयोग किया जा रहा पेस्टीसाइड उनकी अंत: ग्रंथियों को खराब कर रहा है, जिससे उनके जीवन पर खतरा मंडरा रहा है। वहीं ऐसी मछलियों को खाने से इंसान के स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा तथा इंसान कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार हो सकता है।
यह बात एक रिसर्च में सामने आई है। शहर के सीआरएम जाट कॉलेज में प्रोफेसर डा. सुरेश कुमार ने मछली जैसे जलीय जीव-जंतुओं की अंत:ग्रंथियों पर पेस्टीसाइड का प्रभाव विषय पर यह रिसर्च की है। खास बात यह है कि इस रिसर्च को उन्होंने हाल ही में लंदन में आयोजित की गई इंटरनेशनल कांफ्रेस में भी प्रस्तुत किया। भारत से केवल दो साइंटिस्टों ने टोक्सीकोलॉजी एंड क्लीनिकल टोक्सीकोलॉजी विषय पर आयोजित की गई इंटरनेशनल कांफ्रेस में देश का प्रतिनिधित्व किया।
इनमें से एक हरियाणा से तो एक राजस्थान से हैं। राजस्थान से प्रोफेसर प्रेम ङ्क्षसह बुगासरा भी प्रो. सुरेश के साथ उपरोक्त कांफ्रेस में शामिल हुए। लंदन में आयोजित की गई इस इंटरनेशनल कांफ्रेस में करीब 50 देशों के 150 साइंटिस्टों ने भाग लिया। डा. सुरेश को यूएसए सहित अन्य देशों में भी उनके द्वारा की गई विभिन्न विषयों की रिसर्च प्रस्तुत करने का मौका मिल चुका है। डा. कुमार को उपरोक्त रिसर्च के लिए सर्वश्रेष्ठ शोध प्रस्तुति के लिए पुरस्कार व प्रमाण पत्र देकर सम्मानित भी किया गया।
यह पेस्टीसाइड डाल रही जीव जंतुओं पर प्रभाव
डा. सुरेश ने बताया कि रिसर्च में सामने आया कि ऑर्गेनोक्लोरिन, ऑर्गेनोफोस्टेट और कार्बोनेट जैसे पेस्टीसाइड का छिड़काव कपास, गेहूं, धान, तिलहन जैसी फसलों में प्रयोग किया जाता है। डा. सुरेश ने बताया कि पेस्टीसाइड फसलों में डालने से यह जमीन के जरिये पानी में मिल रहा है और तालाब, नदियों व समुद्र के जल में मिक्स होता जा रहा है। जीव-जंतुओं द्वारा गाय, भैंस के दूध से भी हमारे शरीर में खतरनाक पेस्टीसाइड पहुंच रहा है। जो जीवों के साथ-साथ मनुष्यों को भी प्रभावित कर रहा है। वहीं मछली खाने वाले लोगों का इस पर सीधा प्रभाव पड़ता है तथा वे बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। क्योंकि जो पेस्टीसाइड यूज किया जा रहा है, उनमें डेल्टामेथ्रिन की मात्रा 0.017 पीपीएम (पार्ट पर मिलियन) से ज्यादा हो जाए तो यह जलीय जीव जंतुओं की जान के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
तीन साल में पूरी हुई रिसर्च
डा. सुरेश ने बताया कि उन्होंने जीव-जंतुओं की एंडोक्राइन ग्रंथियों और आयनिक संतुलन पर डेल्टामेथ्रिन विषय से रिसर्च 2017 में शुरू की थी। प्रो. सुरेश ने बताया कि इसे पूरा करने में तीन साल लगे हैं। इसे हाल ही में पूरा किया गया है। डा. सुरेश ने बताया कि यह रिसर्च प्रोजेक्ट टूर यूजीसी की ओर से स्पॉसंर किया गया। देशभर से यूजीसी ने इंटरनेशनल कांफ्रेस में शिक्षण संस्थानों से रिसर्च टॉपिक मांगे थे, जिसमें देशभर से टॉपिक में से डा. सुरेश कुमार के टॉपिक व राजस्थान के साइंटिस्ट के टॉपिक को रिसर्च प्रेजेंट करने के लिए सिलेक्ट किया गया।
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