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मुस्लिमों ने की नमाज अदा, बकरीद पर क्यों दी जाती है कुर्बानी, आइए जानें

मुस्लिम कल्याण कमेटी के तत्वाधान में मुस्लिम समाज के लोगों ने बुधवार को क्रांन्तिमान पार्क में बड़े ही हर्षहोल्लास से ईद- उल-जुहा की नमाज मौलाना जमशेद अली ने अदा करवाई

By JagranEdited By: Published: Wed, 22 Aug 2018 11:43 AM (IST)Updated: Wed, 22 Aug 2018 11:43 AM (IST)
मुस्लिमों ने की नमाज अदा, बकरीद पर क्यों दी जाती है कुर्बानी, आइए जानें
मुस्लिमों ने की नमाज अदा, बकरीद पर क्यों दी जाती है कुर्बानी, आइए जानें

जेएनएन, हिसार : मुस्लिम कल्याण कमेटी के तत्वाधान में मुस्लिम समाज के लोगों ने बुधवार को क्रांन्तिमान पार्क में बड़े ही हर्षहोल्लास से ईद- उल-जुहा की नमाज मौलाना जमशेद अली ने अदा करवाई , मौलाना साहब ने ईद-उल-जुहा के महत्व के बारे बताया की यह त्यौहार अल्लाह के प्रति व कुर्बानी के रूप में जाना जाता है यह सुन्नते इब्राहिम है।

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इस मौके पर मुस्लिम कल्याण कमेटी के प्रधान होशियार खान ने कहा की त्यौहार समाज में आपसी भाईचारे,वफादारी एंव एकता में रहने की नसीहत देता है हमें जितना अल्लाह के प्रति वफादार होना चाहिऐ इतना ही अपने देश व समाज के लिऐ भी वफादार होना चाहिऐ वफादारी ओर प्यार ही इस त्यौहार की पहचान है। सभी नमाजियों ने अपने देश,दुनिया के लिऐ अमन चैन व आपस में प्यार ओर भाईचारे से रहने की दुआ मागीं ।

इस मौके पर हिसार जनंसर्घष समिति के अध्यक्ष गौतम सरदाना,सीपीआई के कामरेड सुरेश कुमार ,वकील विक्त्रम मितल व अन्य गणमान्य लोगो ने पार्क में आकर अपने मुस्लिम भाईयों को ईद की मुबारिकबाद दी। इस मोके पर हाजी अफजल बरकत अली, कैरफीक डा. सलीम सिद्दकी,दीवान अली,मुन्नाअली,जुल्लफिकार,गुलाम नबी वकील सोहेल,एंव समाज के बहुत सारे गणमान्य लोग शामिल थे । ईद-उल-अजहा एक अरबी शब्द है इसका मतलब 'ईद-ए-कुर्बानी यानी बलिदान की भावना। इसे 'कुर्बानी की ईद' और सुन्नत-ए-इब्राहीम भी कहते हैं.' ईद-उल-फितर प्रेम और मिठास घोलती है, वहीं ईद-उल-जुहा अपने फर्ज (कर्तव्यों) के लिए कुर्बानी की भावना सिखाती है। इस दिन अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दी जाती है। आमतौर पर बकरों की कुर्बानी दी जाती है, लेकिन भैंस, बकरा, दुम्भा (भेड़) या ऊंट की भी कुर्बानी दी जाती है। लेकिन ऐसा क्यों है। इसके पीछे की क्या कहानी है। बकरीद रमजान के करीब दो महीने बाद मनाई जाती है। अल्लाह की राह में बेटे को कुर्बान करने निकले हजरत इब्राहीम

बताते हैं और मान्यता है कि इस्लाम में इस दिन का बेहद महत्व है। वह बताते हैं कि हजरत इब्राहिम की अल्लाह ने आजमाइश (परीक्षा) के लिए हुक्म (आदेश) दिया। यह हुक्म दिया गया कि वह अपनी सबसे प्यारी चीज को अल्लाह की राह में कुर्बान करें। हजरत इब्राहीम मुश्किल में पड़ गए कि आखिर क्या सबसे प्यारी चीज को अल्लाह की राह में कुर्बान करें। फिर उन्हें अपने बेटे हजरत इस्माइल का ख्याल आया और उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान करने का इरादा मजबूत कर लिया। हजरत इब्राहीम को अपने बेटे से बेहद प्यार करते थे, क्योंकि बेटे का जन्म 86 साल बाद हुआ था।

इसके बाद वह अपने बेटे को कुर्बान करने निकल पड़े। बेटे की कुर्बानी देते समय उनके हाथ रुक न जाएं। इसलिए उन्होंने अपनी आखों पर पट्टी बाध ली। उन्होंने जैसे ही कुर्बानी के लिए हाथ चलाए और फिर आखों पर बंधी पट्टी को हटाकर देखा तो उनके बेटा हजरत इस्माईल सही सलामत थे और रेत पर एक दुम्बा (भेड़) जिबाह (कटा) होकर पड़ा हुआ था, जबकि उनका बेटा सही सलामत था। अल्लाह ने उनको कर्तव्य की परीक्षा में पास मान लिया। और उनके बेटे हजरत इस्माइल को जीवनदान दे दिया। इस वाकये के बाद से ही कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ। जानवरों की कुर्बानी को अल्लाह का हुक्म और हजरत इब्राहीम की सुन्नत मान लिया गया। इन जानवरों को पालने के बाद देते हैं कुर्बानी

अरब में दुम्बा (भेड़), ऊंट की कुर्बानी दी जाती है। जबकि भारत में बकरे, ऊंट और भैंस की कुर्बानी दी जाती है। अल्लाह सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने को कहा था, और अल्लाह ने हजरत इब्राहिम के बेटे को बचाकर दुम्बा कुर्बान करा दिया। इसलिए अरब में दुम्बा की कुर्बानी का चलन शुरू हुआ। बकरे या अन्य जानवरों की भी कुर्बानी दी जाने लगी। जिन जानवरों की कुर्बानी देते हैं उसे कई दिन पहले से अच्छे से खिलाया-पिलाया जाता है. उससे लगाव किया जाता है, फिर उसी की कुर्बानी दी जाती है।


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