Move to Jagran APP

असमिया बहू हरियाणवी अंदाज में बोली- ‘किसतै मिलना सै’, सुणो सो के, कोई मिलण आया सै

बदलते परिवेश के कारण अब हरियाणा के बहुत से युवाओं की शादी दूसरे राज्‍यों में की जा रही है। इनमें बहुत से ऐसे जोड़े हैं जिन्‍होंने एक दूसरे के कल्‍चर को अपनाया। इसमें महिलाओं की भागीदारी ज्‍यादा रहती है। पढ़ें हिसार में एक ऐसी ही बहू की कहानी

By Manoj KumarEdited By: Published: Tue, 20 Oct 2020 03:59 PM (IST)Updated: Tue, 20 Oct 2020 03:59 PM (IST)
असमिया बहू हरियाणवी अंदाज में बोली- ‘किसतै मिलना सै’, सुणो सो के, कोई मिलण आया सै
हिसार के सुलखनी गांव में बाहरी राज्‍य से आई महिला (गुलाबी सूट में) तनू हरियाणवी कल्‍चर में ढल चुकी है

हिसार [गौरव तंवर] कतिपय कारणों से प्रदेश की वर्तमान पीढ़ी के संस्कार बदलाव की हवा के साथ हो चुके हैं। संस्कारों में आए परिवर्तन में दूसरे राज्‍यों से आईं बहुओं का भी व्यापक योगदान है..। रहन-सहन, खान-पान व मान-सम्मान देने के तौर-तरीके बदल गए हैं। मगर हरियाणवी संस्कृति आज भी वही है..अक्षुण्ण।

loksabha election banner

अब देखिए न। हरियाणा के हिसार जिला मुख्यालय से पश्चिम-उत्तर दिशा में 20 किलोमीटर दूर स्थित गांव सुलखनी। गांवों के बीचों-बीच स्थित मकान। दरवाजा खटखटाते ही अंदर से महिला निकली। पूछा- ‘किसतै मिलना सै’ हमने कहा सतबीर सिंह जी का घर ये ही है? तभी महिला ने अंदर की ओर झांकते हुए आवाज दी-सुणो सो कै, कोई मिलण आया सै। इसके बाद सतबीर सिंह आए और अंदर ले गए। घर में प्रवेश करते हुए नजर बिलंगनी (कपड़े सुखाने के लिए बांधा गया तार) पर लटक रहे असमी अंगोछे पर पड़ी।

हरियाणा में मिलने वाले अंगोछे से एकदम इतर हाथ की कढ़ाई से सुसज्जित हाथ से ही बना अंगोछा। खैर इसी बीच दाईं ओर स्थित कमरे में पड़े पलंग पर बैठने का इशारा सतबीर सिंह ने किया। परिचय के बाद फिर शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला। यहां ये भी बता दें कि सतबीर सिंह ने करीब दस वर्ष पूर्व असम के सोनितपुर जिले की टुन्नू (अब तनु) से शादी की थी। तनु उस वक्त करीब 20 साल की थी।

तनु जो कुछ देर पहले इतनी फर्राटेदार हरियाणवी बोल रही थी कि एक बार भी नहीं लगा कि यह सुदूर असम से आई महिला है। इसी दौरान वहां अनु भी आ पहुंची। अनु भी असम से है और तनु के मामा की लड़की है। तनु ने अपने पति के भाई के बेटे की शादी अनु से करीब छह साल पूर्व कराई थी। फिलवक्त सुलखनी में पांच बहुएं असम से हैं।

घूंघट से परहेज, पर मजबूरी है

तनु और अनु बताती हैं कि असम में घूंघट की प्रथा नहीं मगर यहां घूंघट निकालना पड़ता है। तकलीफ होती थी। घरवाला कहता था-कोई आज्यागा, मैं कहती थी-आने दो। खैर परंपरा का निर्वहन किया, अब ये आदत में शुमार हो गया। मगर घूंघट उतना लंबा नहीं निकालतीं जितना कि यहां की महिलाएं।

लोग कहते थे मांस खानी, बदल गया नजरिया

बकौल तनु- ‘मैं मछली व मांस खाती थी। ये लोग शाकाहारी थे। मगर पति ने मेरा ध्यान रखा, वे मुङो सप्ताह में दो दिन मछली या मुर्गा ला देते। लोगों को पता चला तो वे कहते थे कि मांस खानी औरत ले आया। हेय दृष्टि से देखते थे मगर अब नजरिया बदल गया है। ग्रामीण न केवल मुझसे आराम से बात करते हैं बल्कि अब मैं सांस्कृतिक व सत्संग आदि धार्मिक कार्यों में भी उनके साथ भाग लेती हूं।

बदल गई रसोई, गेहूं के साथ चावल का भी बर्तन

घर की रसोई में पहले जहां सिर्फ गेहूं के आटे का डोल होता था, वहीं अब उसके बराबर में चावल का बर्तन भी है। वजह, तनु और अनु चावल ज्यादा खाती हैं जबकि उनके परिजन चावल कभी कभार खाते थे। मगर अब हालत ये है कि घर में एक टाइम चावल बनते हैं और परिजन उसे चाव से खाते हैं। असमी बहुएं भी अब बाजरे की रोटी-सरसों का साग बनाना सीख गई हैं और चाव से खाती हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.