Haryana News: हरियाणा के दादा और पौत्र की जोड़ी ने 25 गांवों में खोल दी गोशालाएं
Haryana News भट्टू ब्लाक के गांव ढांड निवासी रामकुमार भुक्कर और उनके पौत्र अशोक भुक्कर के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। शुरुआती दौर में ग्रामीणों का रुख नकारात्मक ही था लेकिन रामकुमार भुक्कर का संकल्प अटल था।
मणिकांत मयंक, हिसार: दादा गो सेवक हों तो पौत्र में गोभक्ति का गुण होना स्वाभाविक ही है। हरियाणा के फतेहाबाद जिले के भट्टू ब्लाक में दादा और पौत्र की एक जोड़ी ने गो-प्रीत की ऐसी अलख जगाई है कि एक दो नहीं 25 गांवों में गोशालाएं संचालित हो रही हैं। साथ ही, गोबर व गोमूत्र से उत्पाद तैयार कर स्वावलंबन की तरफ भी मजबूत कदम बढ़े हैं। क्षेत्र को बेसहारा पशुओं की समस्या से भी राहत मिलने लगी है। समाज को भी संदेश मिल है कि हमारी संस्कृति में रची-बसी गोभक्ति वास्तविकता में जीवनधारा का हिस्सा बने।
भट्टू ब्लाक के गांव ढांड निवासी रामकुमार भुक्कर और उनके पौत्र अशोक भुक्कर के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। शुरुआती दौर में ग्रामीणों का रुख नकारात्मक ही था, लेकिन रामकुमार भुक्कर का संकल्प अटल था। वह उस समय गांव के सरपंच थे। गांव में आठ एकड़ पंचायती बंजर भूमि थी।
उन्होंने ग्राम पंचायत की इस भूमि पर गोशाला बनाने के लिए ग्रामीणों को किसी तरह सहमत किया। तय हुआ कि भूमि का स्वामित्व पंचायत के पास ही रहेगा। फिर सामान्य राशि के एवज में पट्टे पर भूमि ली गई। सहयोग की राशि मिली। इस तरह, ब्लाक में गो-प्रीत की संवेदना से ओतप्रोत पहली गोशाला की नींव पड़ी।
इस उदाहरण का प्रकाश धीरे-धीरे ब्लाक के सभी गांवों तक जा पहुंचा। परिणाम यह रहा कि गो संरक्षण की संवेदना तो पूरी हुई ही, किसानों को बेसहारा पशुओं द्वारा फसल चरने की समस्या से भी काफी राहत मिली और सड़कों पर दुर्घटनाएं भी कम हुईं।
एक उदाहरण जिसे सबने अपनाया: वर्ष 2004 में 80 बेसहारा गोवंशियों को ठौर देती गोशाला जब अस्तित्व में आई तो गांव ढांड के दादा और पौत्र की यह संवेदना उदाहरण बन गई। एक समय आया जब इस गोशाला में गोवंशियों की संख्या बढ़कर चार हजार जा पहुंची। वर्ष 2007 में रामकुमार भुक्कर ने सोचा कि गांव-दर-गांव गोशाला बनाएं तो एक गोशाला पर बोझ कम हो जाएगा।
पौत्र अशोक कुमार कहते हैं कि इसके पीछे स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों तरह की गायों की अच्छी सेवा का सोच था। यह सोच दूसरे गांव बनगांव में धरातल पर उतरा। ग्राम पंचायत से विमर्श कर गांव ढांड के सिद्धांत के साथ दूसरी गोशाला की नींव पड़ी। फिर सभी 25 गांवों में गोशालाएं बन गईं।
यह अपनाई जाती है प्रक्रिया: गोशाला के लिए जमीन व अन्य व्यवस्था संबंधी अनुकरणीय प्रक्रिया अपनाई गई है। गोवंश-गोशाला संघ के जिला प्रधान अशोक भुक्कर, बनावाली के पूर्व सरपंच जय सिंह श्योराण, भट्टूकलां के पूर्व सरपंच बंशीलाल बताते हैं कि पहले ग्राम पंचायत से प्रस्ताव पास होता है।
उसकी एक प्रति गोशाला का संचालन करने वाली गांव के लोगों की सात सदस्यीय समिति और पदाधिकारियों को सौंप दी जाती है। फिर गोशाला का पंजीकरण होता है। तीन लोगों को खाता खोलने का अधिकार होता है। इन तीनों के हस्ताक्षर से राज्य गोशाला आयोग से भी पंजीकरण करवाया जाता है।
आहार से उपचार तक आत्मनिर्भर: सरकार 300 रुपये प्रति गाय प्रतिवर्ष देती है। इसके अलावा समाज के दानी आगे बढ़कर गोशाला को आर्थिक तौर पर मजबूत करते हैं, लेकिन ये गोशालाएं गाय के गोबर से अनेक उत्पाद बना आत्मनिर्भरता का संदेश भी देती हैं। गोबर से धूप, अगरबत्ती, अर्क, साबुन, गमला, दीपक, दीपक जैसे उत्पाद ग्रामीणों को ही बेचकर गोवंशियों के आहार से उपचार तक की व्यवस्था हो जाती है।