Commonwealth games 2022: दीपक पूनिया ने जीता गोल्ड, पिता हुए भावुक, कहा- 'जीत ग्या म्हारा केतली पहलवान'
Commonwealth Games 2022 दीपक पूनिया के प्रथम कोच रहे गांव छारा के लाला दीवानचंद कुश्ती अखाड़ा के संचालक वीरेंद्र आर्य ने फाइनल में जीत से पहले कहा कि दीपक का स्वर्ण से कम मंजूर ही नहीं क्योंकि मुकाबला पाकिस्तान के पहलवान से है।
बहादुरगढ़, जागरण संवाददाता। बहादुरगढ़ के छारा गांव की माटी से निकले पहलवान दीपक पूनिया ने उधर कामनवेल्थ में स्वर्ण पदक जीता और इधर उनके पिता सुभाष भावुक हो गए। कहा कि ओलिंपिक में दीपक के पदक से चूकने के बाद अब कुछ सुकून मिला है। दीपक ने भी कहा था कि स्वर्ण जीतकर ही लौटूंगा।
प्रथम कोच रहे वीरेंद्र बोले, पाकिस्तान पर जीत से मिली दोगुनी खुशी
दीपक पूनिया के प्रथम कोच रहे गांव छारा के लाला दीवानचंद कुश्ती अखाड़ा के संचालक वीरेंद्र आर्य ने फाइनल में जीत से पहले कहा कि दीपक का स्वर्ण से कम मंजूर ही नहीं, क्योंकि मुकाबला पाकिस्तान के पहलवान से है। इसलिए स्वर्ण तो पक्का है। बाद में जब जीत मिली तो वीरेन्द्र बोले कि पाकिस्तान के पहलवान से हार होती तो मलाल कभी दूर न होता। अब दोगुनी खुशी है। वहीं बजरंग पूनिया के स्वर्ण पदक जीतने पर भी कोच वीरेंद्र आर्य ने खुशी जताई। वे बजरंग के भी प्रथम गुरू रहे हैं। छारा के लाला दीवानचंद अखाड़े से ही बजरंग भी निकला है।
पिता सुभाष बोले...स्वर्ण पदक से मिला सुकून
दीपक के स्वर्ण पदक जीतने के बाद उसके पिता सुभाष बोले कि बेटा जब ऐसी उपलब्धि हासिल करे तो हर पिता का सीना गर्व से चौड़ा होगा ही। इस पदक ने सुकून दिया है। मेरी आंखों में बेटे के लिए जो सपना है वह ओलंपिक में पदक से पूरा होगा।
इस तरह पड़ा केतली पहलवान नाम
भारत के स्टार पहलवान दीपक पूनिया का जन्म 19 मई 1999 को हरियाणा के झज्जर जिले के छारा गांव में हुआ था। विश्व चैंपियनशिप 2019 में रजत जीतने वाला यह पहलवान काफी गरीब परिवार से हैं। नौकरी पाने के लिए ही इन्होंने कुश्ती शुरू की, ताकि परिवार की देखभाल कर सकें। साल 2016 में उन्हें भारतीय सेना में सिपाही के पद पर नौकरी मिली। इसी साल उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कुश्ती में दस्तक दी थी। टोक्यो ओलिंपिक में पदक से चूक गए थे। वह केतली पहलवान के नाम से मशहूर हैं। एक बार गांव के सरपंच ने दीपक को केतली (बड़ा बर्तन) में दूध पीने को दिया। दीपक ने एक बार में ही इसे खत्म कर दिया। इस तरह एक-एक करके उन्होंने चार केतली खत्म कर दी। इसके बाद से ही उन्हें 'केतली पहलवान' नाम से जाना जाने लगा।