विकास की दौड़ घटा रही उम्र, पर्यावरण के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में हो रहे खोखले कमिटमेंट
जागरण संवाददाता, हिसार : दुनियाभर में दो दशकों से पर्यावरण पर गहरी ¨चता जताई जा रही
जागरण संवाददाता, हिसार : दुनियाभर में दो दशकों से पर्यावरण पर गहरी ¨चता जताई जा रही है। वास्तव में इस मुद्दे पर बहुत कम काम हुआ है। पर्यावरण को ताक पर रखकर सभी देश विकास की दौड़ में शामिल हैं। बिगड़ता पर्यावरण लोगों की उम्र घटा रहा है। अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में कमिटमेंट करने और अंतरराष्ट्रीय समझौतों के बावजूद दुनिया में ग्रीन गैस उत्सर्जन बढ़ रहा है। जिससे दुनियाभर में कृषि, मानव एवं पशु स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान में पर्यावरण को ठीक करने के साथ-साथ यह भी जरूरी लगता है कि इंसान को जलवायु परिवर्तन के अनुसार स्वयं को ढाल लेना चाहिए। यह बात जलवायु विज्ञान पर काम कर रहे वैज्ञानिक और अपनी संस्था के साथ नोबल पुरस्कार हासिल कर चुके फ्रांस के वैज्ञानिक प्रो. ऑर्थर रीडेकर ने कही।
प्रो. रीडेकर गुरु जंभेश्वर विश्वविद्यालय में सोमवार से जलवायु परिवर्तन पर शुरू होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए पहुंचे हैं। यह सम्मेलन गुजवि के पर्यावरण एवं आभियांत्रिक विभाग और सोसायटी फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर एंड रिसोर्स मैनेजमेंट के संयुक्त प्रयासों से आयोजित की जा रही है।
अमेरिका ने हर बार तोड़ा कमिटमेंट
प्रो. ऑर्थर ने कहा कि पर्यावरण मामले पर अमेरिका ने कभी कोई कमिटमेंट नहीं किया। 1992 में उसने अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में भाग लेने से पहले शर्त रखी की हम कोई कमिटमेंट नहीं करेंगे। इसके बाद 1995 में बर्लिन सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल ¨क्लटन ने रूचि दिखाई। उस समझौते के अनुसार विकसित देश पहले पर्यावरण ठीक करने की गतिविधि बढ़ाएंगे। फिर अमेरिकन सदन में वो अनुमोदन पास नहीं हुआ। उसके बाद प्रेजीडेंट जॉर्ज बुश ने भी क्योटो प्रोटोकोल का विरोध किया। बाद में बराक ओबामा ने सामाजिक सुरक्षा का हवाला देते हुए पर्यावरण बचाने को लेकर अपना पुरजोर समर्थन किया। 2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन में अमेरिका और चीन ने रूचि नहीं दिखाई।
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तीन साल में 80 फीसद गैस रिसाव घटाना था, 3 फीसद बढ़ गया
2012 में इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपनी पांचवीं रिपोर्ट में दर्शाया कि लगातार हो रहे कार्बनडाई ऑक्साइड को तेजी से कम करने की जरूरत है। 2015 तक इसे 80 फीसद तक कम करने का निर्णय लिया गया। साथ ही कहा गया कि जब 80 फीसद कम हो जाए तो जीरो लेवल पर लाया जाएगा। सभी देशों के नेताओं ने इस पर सहमति जताई, लेकिन हाल ये हुआ कि सभी देशों में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन बढ़ गया। फ्रांस में यह 3 फीसद बढ़ा। चीन और अमेरिका में भी बहुत अधिक बढ़ गया। अमेरिका में तो उसके मंत्रीमंडल ने ही इसकी सम्मेलन की सिफारिसों को मंजूरी नहीं दी। यही कारण है कि प्रति व्यक्ति के हिसाब से सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करता है।
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अमेरिका 16 टन और भारत 2.5 टन प्रति व्यक्ति सीओटू करते उत्सर्जित
प्रो. रीडेकर ने कहा कि अमेरिका 16 टन प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करता है। जबकि 2015 के पेरिस समझौते के अनुसार 2.5 टन सीओटू गैस का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन होना चाहिए। भारत में प्रति व्यक्ति गैस का उत्सर्जन 2.5 टन सालान है, लेकिन जनसंख्या के अनुसार देखा जाए तो भारत में भी भारी मात्रा में खतरनाक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन हो रहा है। जनसंख्या पर्यावरण के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में विषय के रूप में नहीं रहता है, जिसके कारण सामंजस्य बैठाने में परेशानी आती है।