संस्कारशाला : मैं नहीं, हम : संयुक्त परिवारों का कॉन्सेप्ट बदलेगा मानसिकता
केवल अपने लिए जीने की प्रवृति को सदियों से पशु प्रवृति माना गया है और एक दूसरे के साथ जीने को ही मनुष्यता का नाम दिया गया है। आज के दौर में सिमटते परिवारों ने कहीं न कहीं बच्चों की मानसिकता पर असर डाला है। बच्चे अब एकजुटता में भरोसा नहीं करते। वे जो बड़ों को करते हुए देखते हैं वही स्वयं भी अपनाते हैं।
यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
केवल अपने लिए जीने की प्रवृति को सदियों से पशु प्रवृति माना गया है और एक दूसरे के साथ जीने को ही मनुष्यता का नाम दिया गया है। आज के दौर में सिमटते परिवारों ने कहीं न कहीं बच्चों की मानसिकता पर असर डाला है। बच्चे अब एकजुटता में भरोसा नहीं करते। वे जो बड़ों को करते हुए देखते हैं वही स्वयं भी अपनाते हैं। स्कूलों में भी छोटी कक्षाओं तक तो विद्यार्थी शेय¨रग एंड केय¨रग जैसी चीजों में उत्साह दिखाते हैं लेकिन बड़े होते होते 'स्वयं' तक सीमित हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि वे अपने आस-पास इसी तरह के माहौल को देखकर बड़े होते हैं। महानगरीय जीवन में लोग इस तरह जीते हैं कि पड़ोसी को पड़ोसी तक की खबर नहीं होती। यह केवल सामाजिक स्तर पर ही नहीं बल्कि पारिवारिक स्तर पर भी देखने को मिलता है कि लोग एक दूसरे से इतना लगाव नहीं रखते। रिश्ते निभाना मात्र एक रस्म अदायगी समझते हैं।
एक जमाना था जब लोग एक दूसरे के दुख सुख के साथी होते थे लेकिन आज लोग अपने घरों की चहरदीवारी में कैद होकर रिश्ते नातों की अहमियत भूलते जा रहे हैं। इसका असर बच्चों के संस्कार पर इस कदर पड़ता है कि बच्चे दूसरों ही नहीं, बल्कि अपनों के साथ भी इसी तरह के रिश्ते निभाते हैं। आज के दौर में सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन जैसे मनोरंजन के साधनों ने बच्चों को एकजुटता का संस्कार देने की राह में और अधिक चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। ऐसे में अभिभावकों व शिक्षकों की जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को 'मैं' की कैद से निकाल कर 'हम' की संरचना में जीने की आदत डालें। इसके लिए समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार पर ध्यान देना होगा। अपने अहम और तथाकथित निजता की खोखली सोच को दूर रखकर बच्चों के भविष्य व परिवारों को स्वस्थ माहौल देने के लिए एकजुटता दिखाने की जरूरत है। स्कूलों में तो बच्चों को शुरुआती कक्षाओं से ही 'शेय¨रग एंड केय¨रग' सिखाई जाती है। हम हर एसेंबली में संस्कारों की बात करते हैं। अपने पीटीएम (पेरेंट टीचर्स मी¨टग ) में बच्चों के ग्रांड पेरेंट्स को बुलाते हैं ताकि बच्चों के साथ उनकी आत्मीयता और बढ़े। माता पिता को भी कोशिश करनी होगी कि बच्चे अपने परिवार के बीच रहें जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची और उनके बच्चे शामिल हों। इससे एक दूसरे के प्रति केयर और बड़ों के सम्मान की भावना को खुद ही भरा जा सकेगा। समाज जिस ओर जा रहा है वह समाज की संरचना के लिए घातक साबित हो रहा है, अपराध बढ़ रहे हैं और लोग कहीं न कहीं एकाकीपन का शिकार भी हो रहे हैं। इन्हीं चीजों ने इंसान को अलग थलग खड़ा कर दिया है और बढ़ते तनाव व अवसाद की मूल वजह यही है।
डॉ. अंशू अरोड़ा, प्राचार्य, एमिटी इंटरनेशनल स्कूल, पावर ग्रिड, सेक्टर 43