Monsoon 2020: 'अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई...' मानसून से मायूस लोग जरूर पढ़ें यह स्टोरी
Monsoon 2020 पर्यावरण विद संयज कौशिक कहते हैं कि समझना होगा कि प्रकृति का आंचल ही बादलों को ठहराव देता है। जहां इस आंचल की सघनता अधिक है वहां बदरा ठहरते हैं।
गुरुग्राम [प्रियंका मेहता दुबे]। Monsoon 2020: 'अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई, मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई।' मरहूम कवि गोपालदास नीरज की ये पंक्तियां इनदिनों शहर का सच साबित हो रही हैं। ‘इन फेरबी बादलों पर मत जाओ, कितने ही घने क्यों न हों.. बरसेंगे नहीं...’। भव्य इमारतों और विकास की बलि चढ़ी प्रकृति अब अपने रंग दिखा रही है...। दो बुजुर्गों की बातें सच ही जान पड़ती थी। उमड़ते-घुमड़ते, कभी श्याम तो कभी श्वेत रंग दिखाते बादलों को देख अंदाजा होता है कि जमकर बरसेंगे, लेकिन हर बार उम्मीदों के बादल शहर से उड़ जाते हैं। इंद्रदेव की मेहरबानी होती भी है तो सिर्फ शहर के बाहरी हिस्सों पर। पर्यावरण विद संयज कौशिक कहते हैं कि समझना होगा कि प्रकृति का आंचल ही बादलों को ठहराव देता है। जहां इस आंचल की सघनता अधिक है, वहां बदरा ठहरते हैं, झीने आंचल में स्वच्छंद बादलों को बांधने की क्षमता कहां..।
आंखों में जलन, सीने में तूफां...
किसी के लिए मुंह मांगी मुराद, तो किसी के लिए जंजाल साबित होता नया वर्क कल्चर चाहे-अनचाहे मानसिक और शारीरिक व्याधियां पैदा कर रहा है। मनोरोग विशेषज्ञ इसे ‘वर्क फ्रॉम होम एंजाइटी’ का नाम दे रहे हैं। आंखों में जलन और घबराहट जैसी समस्याएं केवल युवाओं में ही नहीं बल्कि बच्चों में भी आम हो रही हैं। प्रतिस्पर्धा वही है, बस जगह बदली है। बदली लाइफस्टाइल ने लोगों को एक अलग तरह के अवसाद में धकेलना शुरू कर दिया है। इसका कारण है कि लोग पर्सनल और प्रोफेशनल जीवन की उस बारीक रेखा को चिह्नित नहीं कर पा रहे हैं जोकि अॉफिस में काम करते हुए स्वत: ही सलीके से खिंच जाया करती थी। बदली परिस्थितियों की चहुतरफा मार, काम के दौरान घरवालों की अपेक्षाएं, बच्चों की चीत्कार और बॉस की फटकार...। यह सभी कारक पहले से ही इंटरनेट के मकड़जाल में उलझी पीढ़ी को और बीमार कर रहे हैं।
बदले नजरियों में बदले नजारे
दोस्तों का समूह खुशी-खुशी मॉल में प्रवेश करता है। कुछ स्टोर्स बंद तो कुछ से गायब हुई स्वागत की औपचारिकता उन्हें निराश कर जाती हैं। अपनी आवाज की खनक सन्नाटे में शोर सी चुभने लगी। असहज हुए युवाओं का समूह कुछ ही देर में बाहर दिखता है। आउटिंग पसंद पीढ़ी के लिए मॉलों के खुलने की सूचना रेगिस्तान में बहार जैसी लगी, लेकिन महीनों बाद मॉलों में पहुचे लोगों के लिए यह केवल मृगमारिचिका साबित हुई। बच्चे जा नहीं सकते, सिनेमा, पसंदीदा स्टोर और पब बंद हैं, माहौल में तैरती अजनबियत और व्यवहार में बेगानापन। शिष्टाचार और अपनेपन के भावों से हमेशा महकते मॉलों की बदली सूरत लोगों को नहीं भा रही है। अभिवादन की जगह थर्मल स्कैनिंग यंत्र लिए हाथ और नकाब तले चेहरों के भाव दर्शाती सवालिया निगाहें, रास नहीं आ रही हैं। नतीजा यह कि मॉल खुलने के एक हफ्ते बाद भी सूनापन पसरा हुआ है।
पाबंदियां हटीं तो भूले दायित्व
मां का हाथ पकड़कर चल रहे बच्चे की निगाह बेसुध पक्षी पर पड़ी..., इसे क्या हुआ..? लगता है किसी गाड़ी की नीचे आ गई...।’ बेबस बच्चे के चेहरे पर आंसू लुढ़क आए। लॉकडाउन के दौरान प्रकृति की खूबसूरती में लोगों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी निडर हो सड़कों पर निकल प्रकृति के नजारे को और खूबसूरत बना रहे थे। आदत पड़ गई तो सड़कों पर अपना समान अधिकार समझने की भूल में मासूमों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। शायद उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनकी यह स्वच्छंदता और लोगों का उनके लिए दुलार तबतक के लिए ही था जबतक कि इंसान बंदिशों में था। नन्हे हाथों में कलात्मक ढंग से अनाज पकड़े जिन गिलहरियों की फोटो से लोगों की सोशल मीडिया वॉल सुशोभित हो रही थी आज सड़कों पर उनके क्षत-विक्षत मृत शरीर पर सरपट दौड़ती गाड़ियों के पहियों पर ब्रेक भी नहीं लगता।